सविता पाठक के पहले उपन्यास ‘कौन से देस उतरने का’ को पढ़ने के क्रम में अनायास ही फणीश्वरनाथ रेणु राही मासूम रज़ा कृष्णा सोबती अमरकान्त और रामदरश मिश्र की रचनाओं की याद आ गई। वही आंचलिकता ठेठ देसी भाषा स्मृतियाँ स्वप्न और कटु यथार्थ का ताना-बाना। कथा-लय को गति देते ढेर सारे लोकगीत और आख्यान में ढलते गप्प। यहाँ भी अंचल में पूरा देश समाविष्ट हो रहा है। इस उपन्यास की कथा जितनी मुनीश की है उतनी ही माँ राधेश्वरी देवी नन्दा अमृता उसके गुम पिता और बड़ेलाल-सुधा जैसों की भी है तो कोल्हू और महुआ के पेड़ की भी। यहाँ बँटते खेत और घटती खुराक के कारण बिलाते लोग और धनपशुओं का चारागाह बनता गाँव है तो नरभक्षी दिल्ली नगर भी है जो भूख बेकारी और बदहाली की मार से अपने ही देश में शरणार्थी बने गँवई इंसानों को जिन्दा निगल रहा है। यह रचना इस विमर्श-बहुल काल में एक प्रति-विमर्श भी रचती है कि दरिद्रता भूख और बदहाली किसी वर्ण या जाति विशेष से भेदभाव नहीं करती सबों को एक ही तरीके से तबाह करती है। हाँ! स्त्री की बात अलग है उसका न कोई वर्ण है न जाति जो पैदा ही खटने और पिटने के लिए हुई है राधेश्वरी माँ की तरह। पूँजीमुँहा समय सत्तालोलुप समाज और संवेदनशून्य व्यवस्था की चौतरफा मार से गुम होते निरीह स्त्री-पुरुषों की कातर पुकार गुहार-सी यह रचना सहृदय पाठक की संवेदना को स्पर्श करेगी सजग और सक्रिय बनाएगी ऐसा विश्वास है। —रणेन्द्र
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