Kautuhal Mere Mann Ki

About The Book

उस रात उस लेखक की परछाईं (Pagalkavi) अधपकी नींद से उठ खड़ी हुई। बगल में कलम पड़ी थी। दिलोदिमाग पे शब्दों और खयालों का पहरा लगा था। फिर क्या था उसके ‘मन की कौतुहल’ में एक रवानी जागी। उसके उबलते शब्दों ने आखिरकार लिख ही डाला।वो दिल्ली का दर्द वो मांझी का मर्ज वो उस अहंकारी मानव का सच वो उस श्मशान की बुझी ख़्वाहिश वो उस ज़िद्दी धुआँ की फरमाइश वो उस दीवाली की अंधेरी रात वो उस सन-सैतालिस की बेबस बात वो उस प्यासे कवि की गुहार वो उस कल्करूपी की पुकार वो उस आशिक की जरूरत वो उस नोटबन्दी की हुकूमत वो उस रेलगाड़ी के तमाशे वो उस सडक़ पे पड़ी ख़ूनी लाशें।वो मानवीय भावनाओं की सिसिकियो के भँवर में जा फँसा था। शब्दों का समुंदर उसके गले तक जा भरा था। उन कड़वे और ज़हर शब्दों की उल्टियाँ करना बेहद ही ज़रूरी था। यह काव्य-रचना जरूरी थी। उस पागलकवि की कल्पना के रसद को चखना जरूरी था।
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