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About The Book
Description
Author
नब्बे के बाद की हिन्दी कविता के अनिवार्य कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव पच्चीस वर्षों से भी अधिक समय से हिन्दी काव्य-जगत को समृद्ध और सशक्त करते आ रहे हैं। संकट के इस दौर में जहां कविता और मनुष्य दोनों का अस्तित्व संकट में दिख रहा है वहाँ यह कवि संवेदना के ठोस धरातल को पकड़े हुए सहजता से हमारे समय के यथार्थ को परत-दर-परत खोलता है। जितेन्द्र को पढ़ना अपने समय से रु-ब-रु होना है। प्रतिभाशाली युवा आलोचक मृत्युंजय पाण्डेय की यह पुस्तक कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव के कवि-कर्म पर केन्द्रित है। इस पुस्तक में पहली बार सफल ढंग से जितेन्द्र की कविताओं की तमाम विशेषताओं को उद्घाटित किया गया है।भूमंडलीकरण पूंजीवाद और विश्वबाजार के इस समय में बदलते गाँव बदलते रिश्ते टूटते-बिखरते घर और इन सबके बीच खत्म होती जा रहीं मानवीय संवेदनाओं को आलोचक ने खोल कर रख दिया है। साथ ही किसान दलित स्त्री और अन्य उपेक्षित-उत्पीड़ित लोगों की समस्याओं के संदर्भ में आज के समय को ध्यान में रखते हुए कवि जितेन्द्र की कविताओं का मूल्यांकन किया गया है। अपनी पीढ़ी में सबसे अधिक लोकधर्मी जितेन्द्र की कविताओं में आए लोक की छवि को आलोचक ने प्रमुखता से अपनी आलोचना का विषय बनाया है। इस पुस्तक का ‘लोक का चेहरा’ शीर्षक अध्याय अद्भुत बन पड़ा है। इस अध्याय के माध्यम से पाठक खेत-खलिहान से गुजरते हुए रसोई घर के स्वाद तक का सफर तय कर लेता है । जितेन्द्र श्रीवास्तव की बहुचर्चित और बहुपठित कविता ‘सोनचिरई’ को इस पुस्तक में पहली बार मूल ‘सोहर’ के साथ मूल्यांकित-विवेचित किया गया है। इस पुस्तक के प्रत्येक आलेख में अपने समय से मुठभेड़ की गई है तथा इस युवा आलोचक के सभी प्रश्न मन को अंदर से झकझोर देते हैं। समकालीन काव्यालोचना के केन्द्र से जहां पाठ गायब होता जा रहा है वहाँ इस युवा आलोचक ने अपनी आलोचना में पाठ को केन्द्र में रखा है। इसकी भाषा तीक्ष्ण प्रवाहमयी और संवेदना से ओत-प्रोत है। भाषा की सादगी और गतिशीलता पढ़ने के प्रवाह को बनाए रखती है। इस पुस्तक में जितेन्द्र की कविताओं के बहाने समकालीन कविता के परिदृश्य को गंभीरता पूर्वक उद्घाटित किया गया है। उम्मीद ही नहीं भरोसा भी है कि यह पुस्तक अपनी विशेषताओं की वजह से हिन्दी काव्यालोचना में अपनी एक अलग पहचान बनेगी।