*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
₹275
₹295
6% OFF
Hardback
All inclusive*
Qty:
1
About The Book
Description
Author
कविता का नगर चाहे बहुत भिन्न हो उसमें कल्पना का तत्त्व बहुत अधिक या कम हो लेकिन बाहर स्थित नगर से उसकी शक्लथोड़ी-बहुत तो मिलती है। पर हर बार मेरी शक्ल को वास्तविक नगर की शक्ल से मिला-जुलाकर देखने की कवायद फिजूल है। कई बार कवियों को भी यह भ्रम हो जाता है कि वे अपनी कविता में वास्तविक शहर के यथार्थ को समेट रहे हैं। उन्हें लगता है कि वो कविता में शब्दों से वो ही शहर बना सकते हैं जो वास्तविक शहर है। लेकिन दोनों के निर्माण में लगने वाली सामग्री ही भिन्न है। जब भी वास्तविक शहर शब्दों में रूपांतरित होता है उसका चेहरा-मोहरा वही नहीं रहता जो उसका वास्तविक चेहरा है। यह शहर का पुनर्रचित चेहरा है। यह कविता का नगर है।लेकिन मुझे बसाना या बनाना भी कोई आसान काम नहीं है। मेरे भवनों सडक़ों गलियों नदियों और सरोवरों को बनाने के लिए एक कवि को भी जाने कितने शब्द कितने वाक्य बिम्ब प्रतीक छंद लय मिथक-कथाओं और कल्पनाओं की जरूरत होती है। कवि का श्रम किसी वास्तु शिल्पी या नगर शिल्पी से किसी बात में कम नहीं होता।मेरा इतिहास उतना ही पुराना है जितना मनुष्य द्वारा किए गए नगरीकरण का। इसे मेरा दंभ न समझा जाए तो कई बार तो मुझे लगता है कि मनुष्य द्वारा बसाए गए शहर से भी पहले मैं अस्तित्व में आया होऊँगा। एक शहर में जैसे हमेशा ही कुछ न कुछ जुड़ता रहता है कुछ टूटता रहता है इसी तरह मुझमें भी कुछ न कुछ बदलता रहता है। प्राचीन कविता का नगर और आज की कविता का नगर एक-सा तो नहीं है। आधुनिक शहरों की तरह मुझमें भी भीड़ है शोर है और तेज गतियाँ हैं परिचित और अपरिचित चेहरे हैं। आखिरकार मैं भी एक नगर हूँ और भीड़ औरशोर से मैं भी कैसे बच सकता हूँ।तो आइए मैं आपको वास्तविक नगर की भीड़ और शोर से निकालकर कविता के नगर की भीड़ और शोर के बीच लिये चलता हूँ।