कविता स्वभावतः ही लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार होती है वह उनकी तरफ़ हमारा ध्यान भी खींचती है उनकी कमी को रेखांकित भी करती है और कई बार नए मूल्यों नई समझदारी एक ज़्यादा महीन संवेदना की ओर भी लेकर जाती है। कविता उन परिस्थितियों की गहरी आलोचना भी करती है जो व्यक्ति की मनुष्य की स्वतंत्रता के विरुद्ध हैं और इस तरह लोकतंत्र के भविष्य के लिए ख़तरा पैदा करती है। ‘कविता में जनतंत्र’ पुस्तक में कुछ कविताओं के पाठ के साथ भारतीय जनतंत्र की वर्तमान दशा और दिशा पर चिन्तन किया गया है यह समझने की कोशिश की गई है कि एक देश और एक समाज के रूप में बहैसियत एक जनतंत्र हमने क्या खोया और क्या पाया है और इस समय हम कहाँ हैं? ग़ौरतलब है कि इन टिप्पणियों की पृष्ठभूमि में 2024 का लोकसभा चुनाव है यह वह समय था जब हम जनतंत्र और बहुमत को आमने-सामने खड़ा पा रहे थे; स्वतंत्रता और सर्वसमावेशी उदारता के पक्षधर आशंकित थे और अल्पसंख्यक भयभीत। जिन कविताओं के बहाने यह गहन जनतंत्र-चर्चा संभव हुई है उनमें नागार्जुन रघुवीर सहाय धूमिल श्रीकान्त वर्मा विजयदेव नारायण साही केदारनाथ सिंह जैसे वरिष्ठों से लेकर अनुज लुगुन अदनान कफ़ील दरवेश और जसिंता केरकेट्टा तक कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की कविताएँ शामिल हैं। अत्यन्त समीचीन यह पुस्तक कविता को पढ़ने की एक नई पद्धति तो हमें देती ही है एक विचार एक शासन-पद्धति और एक सम्भावना के रूप में जनतंत्र की परिभाषा उसकी आधारभूत शर्तों चुनौतियों और प्रतिबद्धताओं पर सोचना भी सिखाती है।
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