मुन्नी गुप्ता की ये कविताएँ अपने समय का साक्ष्य बनने की विश्वसनीय कोशिश हैं। समय के इस चक्रवाती भँवर की गतियों को पकड़ने और पढ़ने की कोशिश इन कविताओं में है। कवि को पता है कि क़लम ही उसकी विरासत है उसके शब्द ही उसकी विरासत हैं सच के प्रति उसका ईमान और उसकी प्रतिबद्धता ही उसकी विरासत है इसलिए ये कविताएँ अपने समय से और अपने आपसे भी निरन्तर जिरह करती कविताएँ हैं। उन्हें चुप्पी का इतिहास तोड़ना है। उन्हें पता है कि उसकी चुप्पी उसके समय की चुप्पी है। उसकी खामोशी उसके वक़्त की खामोशी है। उसके भीतर का यह समुंदर वक्त के साथ ही टूटेगा। इन कविताओं को पढ़ते हुए कई कविताओं की स्मृतियाँ हमारे भीतर कौंधती हैं। एक स्तर पर ये कविताएँ अपनी परंपरा के साथ पुल बनाने का काम करती हैं। बुद्धिजीवियों के दोमुहेपन या बिकाऊ उत्पाद में बदल जाने की छवियों के साथ मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ के जुलूस में चलते बुद्धिजीवियों की छवियाँ स्मृति पर तैरने लगती हैं। इस तरह ये कविताएँ हमारे समय के बौद्धिक और प्रगतिशील परिदृश्य का क्रिटीक भी हैं। इन कविताओं की जड़ें गहरे में अपनी स्थानीयताओं में धँसी हैं। उनकी निगाह सिर्फ जगहों पर ही नहीं हैं बल्कि इस सच पर भी है जिसमें मानिकतल्ला से सोनागाछी की ओर जाती कितनी छोटी-छोटी दुर्गाएँ हर ली गयीं हैं नोंच ली गयी हैं। वर्तमान जीवन की विकृत सच्चाइयाँ मुन्नी गुप्ता की कविता में इतने आवेग के साथ प्रविष्ट होती हैं कि मन-मस्तिष्क को झिंझौड़ डालती हैं। संग्रह में एक कविता श्रृंखला है-कविता पर मुकदमा। छह कविताओं की इस श्रृंखला में हर कविता का एक उपशीर्षक भी है। जैसे अदालतों के इतिहास में पहली बार सदियों से जो कब्रें दफ़न हैं इतिहास में मेरी गवाही में खड़े हैं इतिहास के दो पात्र और धर्मशास्त्र की दो आँखें नालों की फितरत- नाला परनाला बड़ानाला आदि। ये कविताएँ एक स्तर पर दार्शनिक बहस की ओर ले जाती हैं। ये यह सवाल भी खड़ा करती हैं कि कौन तय करेगा कि किसका इतिहास सत्य के करीब है और यह भी कि कौन सा इतिहास मिथकीय और तर्कसंगत नहीं है। इन कविताओं को पढ़ते हुए इनकी जिरह में बिना हिस्सा लिये आप इनसे बाहर नहीं निकल सकते। ये कविताएँ हमारी आन्तरिक चुप्पी में दखल देती और खलल पैदा करती कविताएँ हैं। राजेश जोशी
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