कंवारे सज्दे (ग़ज़ल-संग्रह) मेरी पहली पुस्तक है। किताब की शक्ल लेने में मुझे काफी समय लगा। किसी ने कहा है कि कवि तीन प्रकार के होते हैं। पहला छिपने वाला दूसरा छपने वाला और तीसरा मंचीय कवि। मैं शायद पहला वाला ही हूं। छिपने की वजह से ही मुझे छद्म नाम रखना पड़ा। छिपने के कई कारण हैं। मैं शायर कम दीवाना अधिक हूं। और दीवानों की हालत तो सब जानते हैं। मर्यादा में दिखने के लिए छिपना ही पड़ता है। घुटन से निजात पाने के लिए मैं अपने दर्द को कागज़ पर उकेर-उकेर कर उसे छिपाता रहा। जब मुझे लगा कि दुनिया के सामने अपने अनुभव को अभिव्यक्त करना चाहिए। तब मैं अपनी रचनाएं सन् 2010 से पत्र-पत्रिकाओं में प्रेषित करने लगा। धनाभाव के कारण कम ही लिफाफे प्रेषित कर पाया। दो-तीन साल तक यह सिलसिला चलता रहा। लेकिन असफल रहा। सभी रचनाएं वापस आती रहीं। 2013 में समाचार-पत्र दैनिक भास्कर के साप्ताहिक कालम 'रसरंग' में मेरे द्वारा प्रेषित की गई दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल छपी। यह एक ईनामी योजना थी। मुझे ईनाम तो घोषित किया गया लेकिन मिला नहीं। फिर सन् 2021 में मेरी पहली कविता गुफ़्तगू में छपी। इसके बाद क्रमशः ग़ज़लें भी छपने लगीं। इसके बाद सांझा संकलनों में भी मुझे स्थान मिलने लगा। तसल्ली न होने पर अपना खुद का संकलन निकालने का महसूस हुआ। जो कि 'कंवारे सज्दे' किताब आपके हाथ में है। इस पुस्तक में सिर्फ ग़ज़लें हैं। इन ग़ज़लों में मेरी भावनाएं कल्पनाएं एवं घटनाएं स्पष्ट महसूस की जा सकती हैं। किताब के सिलसिले में अक्सर भाषा का झमेला अधिक रहता है। वही बात मेरी इस पुस्तक में भी है। मेरी भाषा हिन्दी है जो उर्दू के बेहद करीब है। जिसे आप 'हिन्दोस्तानी' भी कह सकते हैं। मैंने अपनी ग़ज़लों में उन शब्दों का भी प्रयोग किया है जो उर्दू का होते हुए भी हिंदी के रंग में घुल मिल गए हैं। जैसे अम्न को अमन उम्र को उमर कद्र को क़दर के रूप में प्रयोग किया गया है। यह अज्ञानतावश नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया है। ठीक उसी तरह से जैसे सुप्रसिद्ध ग़ज़लगो दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों में शह्र को शहर और वज़्न को वज़न किया है। कुंवर नाज़ुक
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