दाग़ देहलवी की रचनात्मक क्षमता अपने समकालीन उर्दू शायरों से कहीं अधिक थी। उनका एक ‘दीवान’1857 ई ० की लूटमार की भेंट चढ़ गया था। दूसरा उनके हैदराबाद के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग़ देहलवी के पाँच दीवान ‘गुलजारे दाग़’ ‘महताबे दाग़’ ‘आफ़ताबे दाग़’ ‘यादगारे दाग़’ ‘यादगारे दाग़- भाग-2’ जिनमें 1038 से ज़्यादा गज़लें अनेकों मुक्तक रुबाईयाँ सलाम मर्सिये आदि शामिल थे इसके अतिरिक्त एक 838 शेरों की मसनवी भी ‘फरियादे दाग़’ के नाम से प्रकाशित हुई। इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ़ उनकी मोहब्बत की बाज़ारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। इससे इंकार करना कठिन है कि लाल क़िले के मुजरों कव्वालियों अय्याशियों अफीम शराब की रंगरंलियों से जिनकी ऊपरी चमक-दमक में उस समय की दम तोड़ती तहजीब की अंतिम हिचकियाँ साफ सुनाई देती थीं दाग़ अपने बचपन और जवानी के शुरुआती वर्षों में प्रभावित हुए थे। इस दौर का सांस्कृतिक पतन उनके शुरू के इश्क़ के रवेये में साफ नज़र आता है। उनकी ग़ज़ल की नायिका भी इस असर के तहत बाज़ार का खिलौना थी जिससे वो भी उन दिनों की परम्परा के अनुसार खूब खेले। लेकिन दाग़ देहलवी का कमाल यह है कि वह यहीं तक सिमित होकर नहीं रहे थे। उनकी शायरी में उनके व्यक्तित्व की भाँति जिसमें आशिक नजाराबाज़ सूफ़ी फनकार दुनियादार अतीत वर्तमान एक साथ जीते-जागते हैं कई दिशाओं का सफरनामा है। ये शायरी जिन्दा आदमी के विरोधाभासों का बहुमुखी रूप है जिसे किसी एक चेहरे से पहचान पाना मुश्किल है।
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