मेरे भीतर लावे होते हैं और आंखों की दहलीज पर पानी की लरजती हुई असंख्य बूंदें। बहुत गर्म-मिजाज हूं लेकिन बर्फ की मानिंद ठण्डा भी। अजीब-सा घाल-मेल है। ये स्थितियां मुझे बार-बार यातनाओं के जंगल में धकेल देती हैं। बहुत अच्छी तरह जानता-समझता हूं फिर भी न जाने कैसे इस नागपाश में जकड़ा रहता हूं। मेरे लड़ाकू तेवरों ने बहुत लोगों को मुझसे नाराज कराया है। मेरी डबडबाई आंखों के सवाल खाली गए हैं और प्रतिदान में महज दीर्घ चुप्पी मिली है। भीतर के लावे और आंखों के पिघलने का एक रिश्ता है। यही रिश्ता मेरी कहानियों का वस्तु-सत्य है। भीतर की तेज-तर्रारी और आंखों का दर्द जो मेरा अपना तो है लेकिन उस पर मेरा कोई दावा नहीं। रचनाकार का निजी और एकान्तिक अंतःमन भी समाज सापेक्ष होता है क्योकि वह सीधा अपने समय के जीवन और जगत के प्रति जिम्मेदार है। यही तथ्य मुझे उस महामानव की ओर मोड़ता है जिसकी नियति सिर्फ तकलीफों का गट्ठर ढोते रहना है; लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मेरी आस्था में कोई कमी आई हो और मेरी आशाओं-विश्वासों की धुरी टूट गयी हो। दरअसल हम सबसे पहले समय के सत्य से साक्षात्कार करते हैं। घिनौने कुरूप और विद्रूपमय यथार्थ को जानने-समझने की पहल हमें जो अन्तर्ज्ञान देती है वही रचना की ठोस जमीन है जिस पर हम महामानव के भविष्य की तस्वीर उकेरते हैं। तब हमारी रचनागत सच्चाई यह नहीं कहती कि हमारा कल भी आज जैसा ही होगा क्यांकि हमारी रचनाधर्मिता सुखद कल के निर्माण की व्याख्या करती है।
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