पुष्पा जी के विचारों और स्वभाव का पफक्कड़पन उनकी भाषा की विशेषता बनकर सामने आया है जो औरों की तुलना में उनके अपने निजी व्यक्तित्व को भी रेखांकित करता चलता है। यदि कबीर जैसी निद्र्वंद्वता और निश्चिन्तता इनकी कविताओं की भाषा का असली तेवर है तो विष के कटोरे को भी अमृत मानकर पी जाने वाली मीरा की प्रपुफल्लता और उसकी बहादुरी इनकी कविताओं का मूल कथ्य है। पुष्पा जी की कविताएँ उनकी सहजता का प्रमाण हैं । मुझे भी उनकी कविताएँ उनकी साँसों की तरह रक्त-संचार की तरह और उनके हृदय की धड़कन की तरह सहज लगीं। जहां तक मैं समझता हूँ बिना प्रयास के अभिव्यक्ति का कविता हो जाना सबसे कठिन काम है। यह तब ही हो पाता है जब रचनाकार की रचनाधर्मिता इतने अभ्यास से गुजारी हो कि उसे कुछ सोचना नहीं पड़े और कविता हो जाए। जैसे विश्वविख्यात सितार-वादक पंडित रविशंकर आँख मूंदकर सितार बजा सकते हैं उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां साहब तबले पर थाप दे सकते हैं और उस्ताद बिस्मिल्लाखां शहनाई के स्वरों को जिध्र चाहे मोड़ सकते हैं क्योंकि उनकी कला उनके जीवन में उतर चुकी होती है। पुष्पा जी को भी लम्बी काव्य-साध्ना और निरंतर काव्यमय वातावरण मिलते रहने के कारण कविता के बारे में यही सिद्ध- हस्तता प्राप्त हो चुकी है। ऐसा लगता ही नहीं कि वे कविता कर रही हैं और जब शब्द सामने आते हैं तो वे उनकी कविता बनकर अपनी जानदार और शानदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। पुष्पा जी के साधरण होने पर प्रसिद्ध गीतकार भारतभूषण जी ने एक स्थान पर कहा था- ‘आप असाधरण रूप से साधरण हैं। इतना साधारण होना एक आश्चर्य है। -महाकवि कुंवर ‘बेचैन’
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