हमारे समय में यथार्थ अब लगभग एक आतंक की तरह से है और परिवर्तनों की गति इतनी तीव्रइतनी बहुआयामी कि एक रचनाकार के लिए अपनी चेतना पर पड़ रहे इन दबावों की शिनाख्त करना और अपने पाँव टिकाये रखने की ज़मीन खोजना भी एक बड़ी चुनौती है.बाज़ार और वित्त पूंजी का समयउपभोग की संस्कृतिभयावह सामाजिक आर्थिक विषमताओं का परिवेशछद्म चेतनाओं को गढ़नेवाला तंत्रआरोपित सच्चाइयांभौतिक और आत्मिक एलिएनेशनविस्थापनसामूहिक बोध में रचा जा रहा धार्मिक वैमनस्य और द्वेषसंगठित अपराधशिथिल होते जाते लोकतांत्रिक मूल्यमीडिया की जनविरोधी भूमिकाएक अजीब तरह का बिखरावविस्मृतिदमित अवचेतन और बहुत सारा अर्थहीन शोरगुल.विनोद दास ने इधर लिखी अपनी कविताओं में इस कठिन यथार्थ को अपने तरीके से लोकेट किया है.फलकचेतना और अभिव्यक्ति स्तर पर ये कविताएँ कुछ नया सामने लाती हैं.सामान्यीकृतसरल रैखिक और सुनिश्चित को भेदते हुए एक अपरिभाषित की ओर जाने का साहस यहाँ है.यह उल्लेखनीय है कि हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य में विनोद दास की इधर लिखी गयी इन कविताओं को व्यापक स्तर पर पाठकीय उत्सुकता और सहानुभूति मिली है.इन कविताओं में वस्तु संसार को रचने की एक नयी हिकमत भी है. नयी सदी के जटिलबहुपर्तीयदिनोंदिन मूल्यविहीन होते जाते निर्मम और एक तकलीफ़देह समय के सन्दर्भों को उजागर करती ये कविताएँ विषय की विविधता और जीवन द्रव्य से भरपूर हैं.कविताओं को पढ़ते हुए हमारा ध्यान इनमें उभरी बहुत सारी तफसीलों की तरफ जाता है.हिंदी कविता के नरेटिव में किसी दृश्य या घटना की वस्तुपरकता और तफसीलों के लिए अभी कुछ समय पहले तक हम विष्णु खरे की कविताओं को याद करते रहे हैं.विनोद दास भी उस खूबी की ओर हमें ले जाते हैं.लेकिन किन्हीं अर्थों में ये कविताएँ विष्णु खरे की उन कविताओं से अलग भी हैं.
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