Kya Farz Hai Ki Sabko Mile Ek Sa Jawab - samkalin Hindi Kaviyon Ki Likhat
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About The Book

यह किताब—‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब’ एक ख़याल है। ख़याल! जो एक रोज़ दरख़्त-ए-नीम के साये में रोज़ की तरह रोज़ गिलहरियों को दाना-पानी देते वक़्त पैदा हुआ और समकालीन हिंदी कवियों के सहयोग से वजूद में आया। एक रोज़ देखे गए ख़याल से वजूद में तब्दील हुई इस किताब में हिंदी के अट्ठाईस समकालीन कवियों—‘अंचित’ ‘अच्युतानंद मिश्र’ ‘अजंता देव’ ‘अजेय’ ‘अनामिका’ ‘अनुराधा सिंह’ ‘अविनाश मिश्र’ ‘उदयन वाजपेयी’ ‘एकांत श्रीवास्तव’ ‘खेमकरण सोमन’ ‘गोबिंद प्रसाद’ ‘जयप्रकाश कर्दम’ ‘दिविक रमेश’ ‘नीलेश रघुवंशी’ ‘प्रदीप सैनी’ ‘प्रभात’ ‘प्रांजल धर’ ‘प्रियदर्शन’ ‘महेशचंद्र पुनेठा’ ‘मुसाफ़िर बैठा’ ‘राजेश जोशी’ ‘राही डूमरचीर’ ‘वंदना टेटे’ ‘विनय कुमार’ ‘विपिन चौधरी’ ‘शायक आलोक’ ‘सुशीला टाकभौरे’ और ‘हेमंत देवलेकर’ की एक जैसे कुल जमा पैंतीस शब्दों—‘मातृभाषा मौन आँसू बाज़ार प्रार्थना मन स्पर्श पेड़ यात्रा अलविदा शहर समंदर मृत्यु नींद देह अवसाद हाथ सड़क सरहद चिट्ठी युद्ध जूते गौरैया दहेज जाति एकांत आईना स्मृति हिचकी साइकिल बंदूक़ औरत चूल्हा भूख और पानी’ पर लिखत शामिल है गद्य और पद्य की शक्ल में। <p>‘मुझको लगता है हर कवि का एक ही शहर होता है एक आदर्श इमैजिनिंग—कवि जब नींद में किसी ख़्वाब में बिचरता है तो उसी आदर्श शहर में जहाँ उसके अपने लोग हैं जहाँ उसके अपने ठिकाने हैं अपनी पसंद की शराब है अपनी पसंद का गाँजा है अपनी पसंद की क़ब्रें हैं अपनी पसंद के घाट हैं और ऐसी सड़कें हैं जो महबूब के घर की तरफ़ जाती हैं। जब तक यह शहर कवि के पास होता है वह कवि नहीं होता है।’</p> <p>इस किताब के ख़याल के पैदा होने से वजूद में आने तक मेरे लिए इस किताब की शक्ल ‘बातचीत’ के रूप में ही रही है। बातचीत वह भी—शाब्दिक। सुनने में यह थोड़ा अजीब लग सकता है। लेकिन मेरी नज़र में इस किताब का पहला और आख़िरी सच यही है। यों आप अपनी सुविधानुसार हिंदी के इन अट्ठाईस समकालीन कवियों की इस लिखत को जो चाहें समझ-कह सकते हैं—कवियों का गद्य कवियों की प्रतिक्रिया कवियों के उद्धरण या कवियों के विचार या कि फिर कवियों का कहन वग़ैरह-वग़ैरह। इससे पहले कि आप किताब पढ़ना शुरू करें एक बात स्पष्ट करना बेहद ज़रूरी है और वो यह कि ख़याल से लेकर वजूद में आने तक यह किताब जो नहीं है वह है—समस्यापूर्ति। जैसा कि एक नामचीन कवि को बिलकुल यही लगा था।</p> <p>यह किताब सिर्फ़ मेरी नहीं है। यह एक साझा किताब है—एक गुलदस्ते की मानिंद। यहाँ मैं महज़ एक माध्यम हूँ और यह तस्लीम करने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं है मुझे। गुज़ारिश है मेरी आपसे इसे इसी रूप में देखा-पढ़ा जाए। सिर्फ़ कविता का एक अदना-सा पाठक होने के नाते मैंने यह काम किया है जो अब आपकी नज़र के सामने है।</p>
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