पंकज मित्र के इस संग्रहलकड़सुंघा में ऐसी चुनी हुई कहानियाँ हैं जिनमें उत्कृष्ट रचनाशीलता का दृष्टांत बनने की सामर्थ्य है। कस्बे का यथार्थ इन कहानियों में अपनी धड़कनों और हलचलों के साथ प्रकट हुआ है। कस्बा यहाँ सिर्फ चाक्षुष रूप में ही नहीं है बल्कि उसकी अदृश्य सच्चाईयाँ अति सूक्ष्म लकीरें और मद्धिम से मद्धिम आहटें भी दर्ज हैं। पंकज मित्र की कहानियों में चटख आवाज़ें सिसकियाँ और चीखें मिलकर उनकी लय निर्मित करती हैं। इन कहानियों की चिंता और सरोकारों के केंद्र में देश के वे असंख्य मनुष्य हैं जो घातक मुसीबतों से लहुलुहान हैं पिट रहे हैं रो रहे हैं मगर वे श्लथ नहीं हैं अपनी सामर्थ्य भर जूझ रहे हैं। राष्ट्रीय मुद्दों समस्याओं और विडम्बनाओं को स्थानीय ज़मीन पर ले आने का हुनर रखने वाले पंकज इन चीजों तक पूरी स्थानीयता के साथ पहुँचते हैं। इस संग्रह के महत्त्व को समझने के लिए यह रेखांकित करना जरूरी है कि इन कहानियों में भारतीय समाज की अधिकांश विसंगतियों से भिड़ंत की गई है। पूंजी बाजारवाद के सांघातिक हमलों और इसके विराट से लेकर सूक्ष्म स्तर पर की जा रही संवेदनहत्यायों की मीमांसा करती यह कहानियाँ हिन्दी कहानियों की दुनिया में सार्थक हस्तक्षेप है। पंकज मित्र के अंदर वह मामूली ज़िद्दी और नैतिक लकड़सुंघा कहीं बचा हुआ है जो कभी उपस्थित होकर तो कभी अनुपस्थित होकर यह बताता रहता है कि वह परिवर्तित होने या पतित होने को तैयार नहीं है। मारक व्यंग्य के शिल्प में कही गई यह कहानियाँ आपको गिरफ्त में ले लेती है। पंकज मित्र ने अपनी कहानियों के लिए एक अर्थगर्भा भाषा तैयार की है एक ऐसी भाषा जो काट- छांटकर तराशी नहीं गई है बल्कि खासी टूट - फूट से पैदा हुई है। स्थानीय भाषा या बोली का सौंदर्य इतना आक्रामक है कि तत्सम संस्कृत या अँग्रेजी के शब्दों का चेहरा भी देशज बन गया है। एक अलहदा अनुभव के लिए एक अलहदा मिजाज़ के कथाकार की ये कहानियाँ ज़रूर पढ़ें।
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