‘‘अनुराग को लगा कि जैसे ज़िन्दगी लेबंटी-सी है। चाह है। गोल्डन। थोड़ी खट्टी। थोड़ी मीठी। एक बार जो स्वाद मिला वो दुबारा ढूँढ़ते रहो। वहीं बनाने वाला भी स्वयं दुबारा नहीं बना पाता ठीक वैसी ही चाह। चाह में किसी को कम दूध किसी को ज़्यादा किसी को मीठी किसी को फीकी। बड़े लोग ब्लैके परेफ़र करते हैं। पता नहीं अच्छा लगता है या हो सकता है कि उनकी किस्मत में ही नहीं होता दूध-शक्कर भगवान जाने! उसी में किसी को अदरक लौंग-इलायची और लेमनग्रास भी चाहिए तो किसी को कुछ भी नहीं! संसार का कारण चाह ही तो है - इच्छा वाला।’’ तेज़ी से विलुप्त होते लोक के नोस्टेल्जिया को व्यंग्य के रंग में डुबोकर लिखी लेबंटी चाह पढ़ते हुए कभी आप हँसेंगे तो कभी ठंडी आह भरेंगे। पटना की पृष्ठभूमि पर लिखे उपन्यास में नये-पुराने देशी-विदेशी अनूठे किरदार चले आते हैं जिनका चित्रण ऐसा सजीव है कि मानो सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा है और सादगी से जो कभी इतनी गहरी बात कह जाते हैं कि मन हरियर हो जाता है और मिज़ाज चकाचक। आईआईटी कानपुर से शिक्षित अभिषेक ओझा एक दशक से न्यूयॉर्क में इन्वेस्टमेंट बैंकिंग में कार्यरत हैं और ‘ओझा उवाच’ उनका लोकप्रिय ब्लॉग है। स्वभाव से जिज्ञासु आदत से पढ़ाकू और शौक से लेखक अभिषेक ओझा की यह पहली पुस्तक है
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