कुँवर नारायण अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कवि हैं। वह विश्व-सिनेमा के गहरे जानकारों में हैं। उन्होंने आधी सदी तक सिनेमा पर गम्भीर विवेचनापूर्ण लेखन किया है व्याख्यान दिए हैं। लेखक का सिनेमा’ उन्हीं में से कुछ प्रमुख लेखों टिप्पणियों व्याख्यानों और संस्मरणों से बनी पुस्तक है। इसमें अनेक अन्तरराष्ट्रीय फिल्मोत्सवों की विशेष रपटें हैं जो लेखकीय दृष्टिकोण से लिखी गई हैं और बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस किताब में वह कला जीवन समाज और सिनेमा इन सबके बीच के सम्बन्धों को परिभाषित विश्लेषित करते हुए चलते हैं। एक कवि दूसरे कला-माध्यम के साथ संवाद करते हुए अपनी कला के लिए कैसे नए सूत्रों की अर्जना करता है यह किताब इसका उदाहरण है; इसमें सिनेमा के व्याकरण की आत्मीय मीमांसा है। यहाँ देख डालने सोच डालने की जल्दबाज़ी नहीं है बल्कि विचार की एक लम्बी निरन्तरता से भरी प्रक्रिया है जो उतनी ही गझिन है जितनी फिल्म बनाने की प्रक्रिया। प्रसिद्ध फिल्मों व निर्देशकों के अलावा उन निर्देशकों व फिल्मों के बारे में पढ़ना एक धनात्मक अनुभव होगा जिनका नाम इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक तक कम आ पाया। हिन्दी किताबों से जुड़ी नई पीढ़ी जो विश्व-सिनेमा में दिलचस्पी रखती है के लिए इस किताब का एक दस्तावेज़ी महत्त्व भी है। अर्जेंटीना के लेखक बोर्हेस की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं—मैं वे सारे लेखक हूँ जिन्हें मैंने पढ़ा है वे सारे लोग हूँ जिनसे मैं मिला हूँ वे सारी स्त्रियाँ हूँ जिनसे मैंने प्यार किया है वे सारे शहर हूँ जहाँ मैं रहा हूँ। ‘कुँवर नारायण के सन्दर्भ में इसमें यह जोड़ा जा सकता है कि मैं वे सारी फिल्में हूँ जिन्हें मैंने देखा है’।” —गीत चतुर्वेदी.
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