बुन्देली लोकोत्तियां व कहावतें जनता का दर्शन शास्त्र हैं। इनके प्रयोग से जीवन के सत्य का दिग्दर्शन तो होता ही है साथ ही ये मानव जीवन और समाज की आलोचना करके समझाइश देकर अन्त:सलिला सरस्वती की धारा प्रवाहित कर ज्ञान का अजस्र स्रोत व्यक्ति के भीतर ही भीतर अनजाने में ही उड़ेल देती हैं। इनके प्रयोग से समग्र राष्ट्र मूर्तिमंत हो उठता है ।बुन्देली कहावतों और लोकोक्तियों का खजाना काफी समृद्धशाली है। हरेक कहावत का अपना अलग इतिहास है। इस जनपद के सामान्य से सामान्य व्यक्ति से लेकर सभ्य से सभ्य व्यक्ति तक को इन लोकोक्तियों और कहावतों का प्रयोग करते देखा जा सकता है। आज आवश्यकता है लोक अभिव्यक्ति से वाणी को यथार्थ अमृतत्व प्रदान करने की ताकि हमारी राष्ट्रभाषा समृद्ध हो सके। प्रस्तुत पुस्तक में बुन्देलखण्ड की लोकोक्तियों और कहावतों के लोक विज्ञान पर लेखिका ने शोधपरक अध्ययन किया है। समाज के व्यष्टि और समष्टि विषयक मनोविज्ञान और जन जीवन के संचित विश्वासों के वैज्ञानिक पहलुओं पर पड़ताल की गयी है। बुन्देलखण्डी कहावतें वास्तव में रोचक व हृदयग्राही हैं। एक कहावत है - उड़ौ चून पुरखन के नांव चक्की पीसते समय जो चून (आटा) उड़ा वह पुरखों को अर्पित। पूर्वजों का इससे अच्छा सत्कार और क्या हो सकता है।इस कहावत में मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता को लेकर करारा व्यंग्यस्मित भाव तथा हास्य का पुट विद्यमान है। इसीतरह दान की बछिया के कान नहीं होते यहां मानो ग्रहीता को सदुपदेश दिया गया है कि दान की वस्तु को श्रद्धा के साथ ग्रहण करना चाहिए उसकी परीक्षा करना मूर्खता होगी।.... : प्रोफेसर डॉ सरोज गुप्ता
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