लोक साहित्य का बीज-भाव है- ‘ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।’ जीवन का सहज-स्वाभाविक व्यास दर्शन जो भाव सत्यों की तनी हुई खड्डी पर यथार्थ की बुनकरी करता है। लोक की इस बुनकर कथा में जीवन का हर तंतु धुन-धुनक-धुनकता अपने संपूर्णत्व में आकार लेता है। लोक के इस धुनक महाकाव्य के हर सर्ग में समय का चक्र सूर्य की तरह प्रखर और चन्द्रमा की तरह शीतल है। काल-यातना में चांदनी के इन्द्रधनुषों की स्मिति है अघोरी नृत्य कापालिक प्रचंडता का भैरव गान मरणासन्न जीवितों का विषाद और आर्त्तनाद लोक लिपियों की रस रंगोलियों के साथ अठखेलियां करता है। लोक जीवन के विविधमुखी इस रंग-कारवां को जुबान देना आसान नहीं है। भारत की भावनात्मक-सांस्कृतिक एकता के इस ललित निबंधात्मक औपन्यासिक लोक जीवन की कथा और अनुच्छेदों में इतने शेड्स हैं कि कौतूहल और आश्चर्य जैसे शब्द अर्थ-व्याप्ति को व्याख्यायित करने के लिए छोटे जान पड़ते है। न जाने कौन से ऐसे भावनात्मक महीन दृढ़ अदृश्य विद्युत तार हैं जो संपूर्ण भारत को भीतर से एकसूत्र में बांधे हैं। इस अन्तरवाही सूत्रत्मक एकात्म को आज तक कोई खंडित नहीं कर पाया। यही भारतीय लोक साहित्य की शक्ति भी है और सिंह द्वार भी। लोक यात्र की यह सरस्वती पीठ है बीज वाणी है क्योंकि साहित्य और संस्कृति की पुण्यमयी सलिला का प्रवाह ‘लोक’ और ‘लोक मानस’ की हरित भूमि पर ही होता रहा है। लोक साहित्य और संस्कृति राष्ट्रीय अस्मिता का अक्षय जीवन्त कोश है राष्ट्र की चेतना का शाश्वत् स्पंदन है। राष्ट्र-अस्मिता की वैखरी वाणी का अमर लोक है। लोक मानस में व्याप्त सांस्कृतिक अन्तर्सूत्रें के अन्तर्बिन्दुओं को सूक्त्यात्मक दृष्टि से देखना जरूरी है क्योंकि ‘लोक’ दृष्टा है ‘लोक’ भोक्ता है ‘लोक’ आस्वाद है ‘लोक’ आस्वादक है। यह रस है। ‘लोक’ ही चिन्मय है शाश्वत है नित्य है ‘लोक’ ही सत् चित् आनन्द है। ‘लोक’ महोदधि है मानव सभ्यता के चिरकाल से संचित अनुभवों तथा अनुभूतियों की रत्नराशि की दिव्याभा इसकी लहरों पर विकीर्ण होती रहती है। जब कागज नहीं था तब भी लोक गीत रामायण और महाभारत की कथाएं थीं वेद और उपनिषद थे जो वाणी के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते रहे और इस तरह हमारी लोक संस्कृति लोक मानस का अविभाज्य हिस्सा बनी रही। लोक संस्कृति का सृजनधर्मी संस्कार शिष्ट संस्कृति में अन्तरगमन करता है उसे प्रभावित करता है और उससे प्रभावित होता है। लोक साहित्य के जितने भी अंग-उपांग हैं वे सब इसके प्रमाण हैं। लोक कलाओं का संसार ही अपने में अद्भुत है। लोक कलाएं संस्कृति की सृजन भूमि को यदि उर्वर बनाती है तो लोक गीत ‘दूब लेकर उसकी मंगल स्तुति करते हैं लोक कथाओं का ‘दधिभाव’ किसी भी भाषा-संस्कृति में रूपान्तरित होकर भी अपने मूल रूप में एक जैसा रहकर समरसता और एकत्व का ‘अच्छत’ कुंकुम लगाता है तो लोक गाथाएं संस्कृति की रंगोली बनकर मौली बांधती हैं। ललित एवं प्रदर्शनकारी कलाएं लोकोत्सवों में ढोल-मजीरा बजाती हैं तो विभिन्न नृत्य शैलियां लोक संस्कृति के वैभव को दर्शाती हैं और सोने पे सुहागा है मूर्तिकला काष्ठकला स्थापत्य कला मेले-उत्सव लोकोक्तियां कहावतें मुहावरे प्रहेलिकाएं आदि लोक मानस का प्रतिसंसार रचती हैं। व्रत अनुष्ठान भजन कीर्तन आदि लोक संस्कृति का चौक पूरते हैं तभी संपूर्णता में हमारी लोक संस्कृति संश्लिष्ट होकर भारतीयता के उन गौरव बिम्बों को सामने लाती है जो आन्तरिक स्तर पर मनुष्य की स्थायी आचार संहिता है एक ऐसा मुक्त-उन्मुक्त लोक जो प्राण प्रकृति का संजीवन रस लेकर विश्व को अपने में समेट लेता है।
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