लोक साहित्य लोक संस्कृति की एक महत्तपूर्ण इकाई है । यह इसका अविच्छिन्न अंग अथवा अवयव है । जब से लोक साहित्य का भारतीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन तथा अध्यापन के लिये प्रवेश हुआ है तब से इस विषय को लेकर अनेक महत्तपूर्ण ग्रंथो का निर्माण हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ को छः खण्डों तथा 18 अध्यायों में विभक्त किया गया है । प्रथम अध्याय में लोक संस्कृति शब्द के जन्म की कथा इसका अर्थ इसकी परिभाषा सभ्यता और संस्कृति में अंतर लोक साहित्य तथा लोक संस्कृति में अंतर हिंदी में फोक लोर का समानार्थक शब्द लोक संस्कृति तथा लोक स्संस्कृति के विराट स्वरुप की मीमांसा की गई है । द्वितीय अध्याय में लोक संस्कृति के अध्ययन का इतिहास प्रस्तुत किया गया है । यूरोप के विभिन्न देशों जैसे जर्मनी फ़्रांस इंग्लैंड स्वीडेन तथा फ़िनलैंड आदि में लोक साहित्य का अध्ययन किन विद्वानों के द्वारा किया गया इसकी संक्षिप्त चर्चा की गयी है । दिवितीय खंड पूर्णतया लोक विश्वासों से सम्बंधित है । अतः आकाश-लोक और भू-लोक में जितनी भी वस्तुयें उपलब्ध है और उनके सम्बन्ध में जो भी लोक विश्वास समाज में प्रचलित है उनका सांगोपांग विवेचन इस खंड में प्रस्तुतु किया गया है । तीसरे खंड में सामाजिक संस्थाओं का वर्णन किया है जिसमे डॉ अध्याय हैं-(1) वर्ण और आश्रम (२) संस्कार । वर्ण के अंतर्गत ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्रों के कर्तव्य अधिकार तथा समाज में इनके स्थान का प्रतिपादन किया गया है । आश्रम वाले प्रकरण में चारों आश्रमों की चर्चा की गई है । जातिप्रथा से होने वाले लाभ तथा हानियों की चर्चा के पश्चात् संयुक्त परिवार के सदस्यों के कर्तव्यों का परिचय दिया गया है । प खंड में ललित कलाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है । इन कलाओं के अंतर्गत सगीतकला नृत्यकला नाट्यकला वास्तुकला चित्रकला मूर्तिकला आती है । संगीत लोक गीतों का प्राण है । इसके बिना लोक गीत निष्प्राण निर्जीव तथा नीरस है । पष्ठ तथा अंतिम खंड में लोक साहित्य का समास रूप में विवेचन प्रस्तुत किया गया है । लोक साहित्य का पांच श्रेणियों में विभाजन करके प्रत्येक वर्ग की विशिष्टता दिखलाई गयी है ।.
Piracy-free
Assured Quality
Secure Transactions
Delivery Options
Please enter pincode to check delivery time.
*COD & Shipping Charges may apply on certain items.