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About The Book
Description
Author
लोक का व्यापक अर्थ है। हमने माना कि जो कुछ भी ज्ञानेंद्रियां महसूस करती हैं। उसकी अनुभूति करती है वह लोक है। इसमंे मूर्त और अमूर्त सारा जीवन शामिल है। इस लोक से ही लोग बनता है। लोग यानी समाज। भारतीय चिंतन चूंकि लोक को संग्रह एवं संयोजन करता चलता है इसलिए भारतीय जीवन में लोक की विशालता असीम है। भारतीय जीवन के उस लोक की पुर्नयात्रा करनी होगी जहां प्रकृति के शोषण का समर्थन नहीं किया जाता। प्रकृति से उतना ही लेने को कहा गया है जितना हमारी जरूरत है। यह प्रकृति के साथ अपनापन का नाता है। हमारा लोक कहता है - धरतीमाता गौमाता तुलसीमाता गंगामाता वनदेवी कुलदेवी। हम पीपल को पूजते है सांपों को दूध पिलाते हंैं चिड़ियां को पानी पिलाते हैं और चीटियों को चीनी खिलाते हैं। प्राणी जगत की भांति ही वृक्ष जगत में भी प्रेम घृणा आनंद भय सुख दुख संक्षोभ मोह एवं अन्य असंख्य प्रकार की उत्तेजनाओं के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप संवेदनाएं विद्यमान हैं। धातु वृक्ष और प्राणी सभी एक ही सामान्य नियम के अधीन हैं। ये सभी मूलतः एक ही प्रकार से क्लांत और अवसाद का अनुभव करते हैं- आरोग्यलाभ या आनंद सिहरन अथवा मरण का भी एक प्रकार का स्थिर निःस्पंद भाव इनमें दिखायी देता है। वृक्षों में भी संवहन तंत्र है। प्राणियों की देह की रक्त संचार-क्रिया के समान ही वृक्षों में भी संवहन तंत्र रस संचार क्रिया होती है। भारतीय इतिहास में लोकहित की इतना चिंता रही कि लोकायत मत चल पड़ा। धर्मशास्त्र के रचयिता वृहस्पति से लेकर कौटिल्य तक और कौटिल्य से लेकर मेधातिथि तथा देवल ऋषि तक जो व्यवहार में है वही लोकायत है। लोकायत यानी लोक में जिनका घर है।