विक्रम संवत 1633 हल्दीघाटी की तपती धरती पर रणगर्जना उठी थी। धूल के बादलों में लिपटी वह रणभूमि एक ऐसे महायुद्ध की साक्षी बन रही थी जहां राणा प्रताप अपने समस्त प्राणों की आहुति लिए अकेले ही मुग़ल सेना पर टूट पड़े थे। उनका तेज ऐसा था मानो स्वयं भगवान महाकाल उनके रूप में उतर आए हों। चेतक की रफ्तार बिजलियों को भी मात दे रही थी और राणा की तलवार से निकली हर एक चोट सौ दुश्मनों के लिए विनाश का पैगाम बन जाती थी। उनकी आँखों में ज्वाला थी हृदय में मातृभूमि के लिए अग्नि और शरीर पर ज़ख़्मों के बावजूद अदम्य साहस। राणा प्रताप एक-एक करके मुग़लों की पंक्तियाँ चीरते जा रहे थे जैसे हिमालय की कोई चोटी अपने मार्ग में आने वाले तूफ़ानों को रोकती नहीं रौंदती है। और वहीं युद्ध के कोलाहल से कुछ दूरी पर मुग़ल शिविर के पास अपने गज पर सवार राजा मानसिंह खड़ा था। उसकी आँखें राणा प्रताप के असाधारण शौर्य को देखकर ठिठक गई थीं। उस वीरता के सम्मुख उसकी तलवार हाथों में कांपने लगी। जिन मुग़लों के लिए वह लड़ रहा था उनके हृदय में प्रताप के लिए भय था और जिन राजपूतों के रक्त से वह भूमि लाल हो रही थी उनके भीतर प्रताप की तरह मर मिटने का जुनून। उस क्षण मानसिंह के भीतर एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ— एक युद्ध जो तलवारों से नहीं आत्मा की पुकार से लड़ा जा रहा था। क्या वह सच में विजयी पक्ष में था? क्या उसकी स्वामिभक्ति मुग़लों के प्रति अपने ही धर्म और कुल की पीठ पर छुरा नहीं था? हल्दीघाटी के इस महायुद्ध में केवल तलवारें ही नहीं टकराईं आत्माएं भी जलीं— एक प्रताप की जो अपने वतन के लिए जल कर भी दीपक की तरह रोशन रहा; और एक मानसिंह की जो उस रोशनी में अपना अंधकार पहचानने लगा। यह केवल युद्ध नहीं था— यह था आत्मसम्मान बनाम सत्ता का संघर्ष।
Piracy-free
Assured Quality
Secure Transactions
Delivery Options
Please enter pincode to check delivery time.
*COD & Shipping Charges may apply on certain items.