हरिवंशराय ‘बच्चन’ की अमर काव्य-रचना 'मधुशाला' 1935 से लगातार प्रकाशित होती आ रही है। सूफियाना रंगत की 135 रुबाइयों से गूँथी गई इस कविता की हर रुबाई का अंत ‘मधुशाला’ शब्द से होता है। पिछले आठ दशकों से कई-कई पीढ़ियों के लोग इसे गाते-गुनगुनाते रहे हैं। यह एक ऐसी कविता है जिसमें हमारे आस-पास का जीवन-संगीत भरपूर आध्यात्मिक ऊँचाइयों से गूँजता प्रतीत होता हमधुशाला का रसपान लाखों लोग अब तक कर चुके हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे यह ‘कविता का प्याला’ कभी खाली होने वाला नहीं है जैसा बच्चन जी ने स्वयं लिखा है - भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला कभी न कण भर खाली होगा लाख पिएँ दो लाख पिएँ! पाठक गण हैं पीनेवाले पुस्तक मेरी मधुशाला।