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About The Book
Description
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सल्तनत काल में चरखा भारत में लोकप्रिय हुआ। इर$फान हबीब कहते हैं कि निश्चित रूप से चरखा और धुनिया की कमान सम्भवत: 13वीं और 14वीं शताब्दी में बाहर से भारत आए होंगे। प्रमाण मिलते हैं कि का$गज़ लगभग 100 ई. के आसपास चीन में बनाया गया। जहाँ तक भारत का प्रश्न है अलबरूनी ने स्पष्ट किया है कि 11वीं सदी के आसपास प्रारम्भिक वर्षों में मुस्लिम पूरी तरह से का$गज़ का इस्तेमाल करने लगे थे। बहरत में इसका निर्माण तेरहवीं शताब्दी में ही आरम्भ हुआ जैसा कि अमीर खुसरो ने उल्लेख किया है।भारत में मुस्लिम सल्तनतों के स्थापित होने के बाद अरबी चिकित्सा विज्ञान ईरान के मार्ग से भारत पहुँचा। उस समय तक इसे यूनानी तिब्ब के नाम से जाना जाता था। परन्तु अपने वास्तविक रूप में यह यूनानी भारतीय ईरानी और अरबी चिकित्सकों के प्रयत्नों का एक सम्मिश्रण था। इस काल में हिन्दू वैद्यों और मुस्लिम हकीमों के बीच सहयोग एवं तादात्म्य स्थापित था। भारतीय चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से मुगल साम्राज्य को स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। दिल्ली की वास्तु-कला का वास्तविक गौरव भी मुगलकालीन है। संगीत के क्षेत्र में सितार और तबला भी मुस्लिम संगीतज्ञों की देन है।विभिन्न क्षेत्रों के इन्हीं सब तथ्यों के दायरे में यह पुस्तक तैयार की गई है। तीस अध्यायों की इस पुस्तक में खास के विपरीत आम के कारनामों एवं योगदानों पर रोशनी डालने का प्रयास किया गया है। व्हेनत्सांग के विवरण को सबसे पहले पेश किया गया है ताकि मध्यकाल की सामन्तवादी पृष्ठभूमि को भी समझा जा सके। धातु तकनीक रजत तकनीक स्वर्ण तकनीक कागज़ का निर्माण आदि के आलावा लल्ल वाग्भट ब्रह्मगुप्त महावीराचार्य वतेश्वर आर्यभट द्वितीय श्रीधर भास्कराचार्य द्वितीय सोमदेव आदि व्यक्तित्वों के कृतित्व पर भी शोध-आधारित तथ्यों के साथ प्रकाश डाला गया है।बैक कवर मैबौद्ध एवं जैन धर्मों ने अपने ढंग से मूर्तिकला वेफ विकास व प्रचार-प्रसार में प्रचुर योगदान किया। काश्मीर से दसवीं शताब्दी में बौद्धधर्म का महायान सम्प्रदाय लद्दाख़ पहुँचा और तब से लद्दाख़ को बोद्ध धर्म वेफ एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ-वेफन्द्र की महिमा प्राप्त हुई। लद्दाख़ को सांस्कृतिक स्तर पर लघु तिब्बत भी कहा जाता है। यहाँ वेफ चैत्य एवं विहारों में प्राप्त गौतम बुद्ध एवं उनवेफ अन्य अवतारों एवं शिष्यों की विशाल ताम्र एवं कांस्य प्रतिमा देखकर यह कल्पना करना कठिन है कि उस काल में वैफसे इतनी बृहद् मूर्तियाँ बनाई जा सकी होंगी। लेह से 10 मील दूर सिन्धुघाटी नदी पर तिक्से नामक बौद्ध विहार में बुद्ध नौ मीटर उँफची एक बैठी हुई मुद्रा में मूर्ति है जो बारहवीं शताब्दी की है। लेह में ही एक अन्य बौद्ध-विहार में बड़ी मूर्ति स्थापित है। पूरे लद्दाख़-भर में बुद्ध की सैकड़ों छोटी-छोटी मूर्तियाँ स्थापित हैं। धातु की ढलाई एवं साँचों को बनाने की कला उस समय कितनी विकसित रही होगी इसका अनुमान इन मूर्तियों को देखकर लगाया जा सकता है। दक्षिण भारत में पल्लवों और चोल राजाओं वेफ संरक्षण में तंजौर मदुरै विजयनगर आदि केन्द्रों में जो कांस्य मूर्तियाँ मिलती हैं वे न वेफवल वैष्णव शैव शाक्त बौद्ध जैन और तंत्रा-परम्परा वेफ प्रतिमा विज्ञान वेफ विविध आयामों को रूपायित करने वाली अमर कृतियाँ हैं बल्कि भारतीय धातुकर्म व मूर्तिकला वेफ स्थानीय वैभव और आन्तरिक जीवन्तता का पुष्ट प्रमाण भी हैं।—इसी पुस्तक से|