भीतर जैसे पलाश दहक रहे हैं संवेदनाएं जब हिलोरें मारने लगती है काव्य का भरना बह निकलता है हर उस ओर जहां मानवीय संवेदनाएं दम तोड़ रही हैं । शिल्प की अथाह गहराईयों में उतर सकूं ऐसी ताब कहीं मेरी कलम में अलबत्ता साहित्य के धरातल पर उथली सी सतह पर तिनके की राह किनारें की तलाश में हूँ ताकि कवि '' कर्म '' से मानव '' धर्म '' को अपनी '' कविता '' से सार्थक कर सकूं । सुफेद वादलों ने जब भी अपने पर फैलाये एक बार नीले आसमां की और बार फिर जमीन की ओर ताकती हूं ये कैसा सपना है ! जमीन से सितारे उगाने का ! एक बार फिर जमीन की ओरताकती हूँ ये कैसा सपना है ! जमीन से सितारे उगाने का !
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