‘महसूस’ हमारे प्रियवर भूपेन्द्र मिश्र का पहला कविता संग्रह है. पचास साल की उम्र के बाद भीतर की बेचैनी ने भूपेन्द्र को कविता की दुनिया में वापस पहुँचा दिया. इन कविताओं की गवाही से यह कहा जा सकता है कि इस बीच कविताओं के पठन से भूपेन्द्र विमुख नहीं रहे केवल लेखन में समय नहीं दे सके. पचीस-तीस साल पहले की कविताओं में अभ्यास करने वाले युवा की जो अभिव्यक्ति होती थी उससे ‘महसूस’ की कविताओं की परिपक्वता बहुत अलग है. बेशक कुछ बातें नियमित अनुभव से या अभ्यास से आती हैं लेकिन भीतर की बेचैनी किसी कवि को पाठक के लिए विश्वसनीय बनाती है. भूपेन्द्र यह विश्वास जगाते हैं क्योंकि उनमें जितनी व्यग्रता अभिव्यक्त करने की है उतनी ही तीव्रता अनुभव करने की भी है... ...कविता में मनुष्यता को नए सिरे से गढ़ना वैसा ही है जैसे ‘एक चींटी निकल पड़ी हो बहुत बड़े दाने को धकेलते.’ कम से कम कविताएँ इस बात की गवाही देती हैं कि भूपेन्द्र का संघर्ष एक कवि होने और कवि के रूप में मनुष्य होने के लिए है. उन्हें कविता पर विश्वास इसलिए है कि उनके बेहतर नागरिक बनने में कविता ने बहुत अधिक मदद की है. बाकी बात गौण है क्योंकि कविता निराशा से लड़ती है खुद से भी लड़ने का साहस और दृष्टि देती है. कविता पर विश्वास वस्तुतः मनुष्य की रचना और रचनाशीलता में विश्वास है. --अजय तिवारी
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