" रैदास कहते हैं: मैंने तो एक ही प्रार्थना जानी—जिस दिन मैंने ‘मैं’ और ‘मेरा’ छोड़ दिया। वही बंदगी है - जिस दिन मैंने मैं और मेरा छोड़ दिया क्योंकि मैं भी धोखा है और मेरा भी धोखा है। जब मैं भी नहीं रहता और कुछ मेरा भी नहीं रहता, तब जो शेष रह जाता है तुम्हारे भीतर, वही तुम हो, वही तुम्हारी ज्योति है—शाश्वत, अनंत, असीम। तत्त्वमसि।! वही परमात्मा है। बंदगी की यह परिभाषा कि मैं और मेरा छूट जाए, तो सच्ची बंदगी।"—ओशो पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदु: प्रेम बहुत नाजुक है, फूल जैसा नाजुक है! जीवन एक रहस्य है मन है एक झूठ, क्योंकि मन है जाल—वासनाओं का अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो प्रेम और विवाह साक्षीभाव और तल्लीनता ओशो के होने ने ही हमारे पूरे युग को धन्य कर दिया है। ओशो ने अध्यात्म के चिरंतन दर्शन को यथार्थ की धरती दे दी है।—गोपालदास ‘नीरज ’ अनुक्रम #1: आग के फूल #2: जीवन एक रहस्य है #3: क्या तू सोया जाग अयाना #4: मन माया है #5: गाइ गाइ अब का कहि गाऊं #6: आस्तिकता के स्वर #7: भगती ऐसी सुनहु रे भाई #8: सत्संग की मदिरा #9: संगति के परताप महातम #10: आओ और डूबो उद्धरण : मन ही पूजा मन ही धूप - पहला प्रवचन - आग के फूल "सारा अभ्यास-योग, ध्यान, तप--सारा अभ्यास, परमात्मा का ज्ञान हो जाए, अनुभव हो जाए, इसलिए है। इन्हीं में मत उलझ जाना। नहीं तो कुछ लोग जिंदगी इसी में लगा देते हैं कि वे आसन ही साध रहे हैं। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो जिंदगी भर से आसन ही साध रहे हैं। भूल ही गए कि आसन अपने आप में व्यर्थ है। ध्यान कब साधोगे? और ध्यान भी अपने आप में काफी नहीं है समाधि कब साधोगे? और समाधि भी अपने आप में काफी नहीं है। ये सब साधन ही साधन हैं, सीढ़ियां हैं। सीढ़ियों पर मत अटक जाना। सीढ़ियां बहुत प्यारी भी हो सकती हैं, स्वर्ण-मंडित भी हो सकती हैं, उनका भी अपना सुख हो सकता है। लेकिन ध्यान रखना कि सीढ़ियां मंदिर की हैं,प्रवेश मंदिर में करना है। मंदिर का राजा,मंदिर का मालिक भीतर विराजमान है। सब अभ्यास करो लेकिन एक ध्यान रहे: सब अभ्यास साधन मात्र हैं। ध्यान हो, पूजा हो, आराधना हो, सब अभ्यास हैं और साधन हैं। एक न एक दिन इन्हें छोड़ देना है। कहीं ऐसा न हो कि अभ्यास करते-करते अभ्यास में ही जकड़ जाओ! ऐसी ही अड़चन हो जाती है। लोग पकड़ लेते हैं फिर अभ्यास को। फिर वे कहते हैं, तीस वर्षों से साधा है,ऐसे कैसे छोड़ दें? तो फिर साधन ही साध्य हो गया। फिर तुम अंधे हो गए। फिर तुम रेलगाड़ी में बैठ गए और यह भूल ही गए कि कहां उतरना है।"—ओशो