”मन का मौन परिमेय नहीं है उसे मापा नहीं जा सकता। मन को पूरी तरह से खामोश होना होता है विचार की एक भी हलचल के बिना। और यह केवल तभी घटित हो सकता है जब आपने अपनी चेतना की अंतर्वस्तु को उसमें जो कुछ भी है उस सब को समझ लिया हो। वह अंतर्वस्तु जो कि आपका दैनिक जीवन है--आपकी प्रतिक्रियाएं आपको जो ठेस लगी है आपके दंभ आपकी चातुरी तथा धूर्ततापूर्ण छलावे आपकी चेतना का अनन्वेषित अनखोजा हिस्सा--उस सब का अवलोकन उस सब का देखा जाना बहुत ज़रूरी है; और उनको एक-एक करके लेने एक-एक करके उनसे छुटकारा पाने की बात नहीं हो रही है। तो क्या हम स्वयं के भीतर एकदम गहराई में पैठ सकते हैं उस सारी अंतर्वस्तु को एक निगाह में देख सकते हैं न कि थोड़ा-थोड़ा करके? इसके लिए अवधान की ‘अटेन्शन’ की दरकार होती है...“ मन की थाह पाने के मनुष्य ने बड़े जतन किये हैं। जीवन में उसकी सम्यक् भूमिका क्या है सही जगह क्या है यह जिज्ञासा इतिहास के प्रारंभ से ही मंथन और संवाद का विषय रही है। मन एवं जीवन से जुड़े इन प्रश्नों की यात्रा को जे.कृष्णमूर्ति ने नया विस्तार नये आयाम दिये हैं। 1980 में श्रीलंका में प्रदत्त इन वार्ताओं में मनुष्य के जीवन को एक ऐसी किताब का रूपक दिया गया है जो वह स्वयं है; और उसका पाठक भी वह स्वयं ही है।
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