देह का आकर्षण मस्तिष्क की चेतना को खो देता है। मानव को चाह रहती है कि उसे सुन्दर देह मिले। क्योंकि देह की कोई जाति नहीं होती। देह देह होती है जैसे रोटी की कोई जाति नहीं होती जिसके सामने परोस दो खा लेता है। समाज औरत से मर्यादित रहने की अपेक्षा करता है। मर्द भले ही रोगी हो लेकिन स्त्री अपने इच्छित पुरूष से गर्भधारण करे तो पाप है। औरत के लिये आज भी समाज की बेड़ियाँ हैं। एक बार इन बेड़ियों को तोड़कर देखो औरत के जीवन का रंग बदल जाएगा। तब नाम धरा जाएगा बदचलन है। बस यही एक नाम के सहारे जीवन सुखमय हो जाएगा। आज बिना किसी नाम के भी बदचलनीवाला ही काम हो रहा है। समाज की सुहागनों को विधवा से डर लगने लगा है। मानो उनके पतियों को हड़प लेगी। वास्तव में समाज की सहानुभूति विधवाओं के साथ होना चाहिये लेकिन आज फिर सुन्दर चेहरा हार गया था। इस चेहरे पर नसीब भारी हो गया। मन्नतों के धागे की कथा आस्था और विश्वास पर आधारित है। आस्था जब विश्वास का आवरण ओ़ढे मानव मस्तिष्क पर आच्छादित होती है तो विश्वास अंधविश्वास में बदल जाता है। जो पाप और पुण्य में अन्तर नहीं कर पाता। इस कथा में स्त्री पुण्य के रास्ते पर चलते-चलते कब पाप के शिखर पर पहुँच जाती है इसका आभास उसे तब होता है जब वह अपनी रेखा को लांघ चुकी होती है।
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