इस पुस्तक का शीर्षक हे मंथन जो मथने की क्रिया को दर्शता है. इस मंथन की प्रत्येक कविता वैचारिक मंथन का परिपाक है. जिस तरह हम दही से घी बनाने के लिए मंथन क्रिया करते है और उसने से हमे पौष्टिक घी मिलता है. परंतु घी से पहले उसमे से निकलता है गरल. यह गरल और घी दूध मे अदृश्य रूप मे रहता है. वस्तू कोई भी हो उसमे अच्छा और बुरा दोनो अदृश्य रूप मे स्थित रहते है और वो मंथन से ही अलग होते है. इस काव्यसंग्रह मे वैचारिक मंथन की प्रक्रिया की परी कल्पना है. हमारे मन अंतकरण मे अच्छे और बुरे विचारो का संकलन होता है. जो हमे आयुष्यभर पीडित करते रहते है. अगर हमने बुद्धी रुपी मथनीसे ऊन विचारो का मंथन किया तो बुरे विचारू का दोहन होकर अच्छे विचार शेष रहेगे. और हमारा अंतकरण शुद्ध हो जायेगा. फिर उस शुद्ध अंतकरण मे मात्र समाधान ही शेष रहता है. और वही समाधान मंथन का सार रूप अमृतकुंभ होता है.
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