ख़्यात कवि कहानीकार निबंधकार कुमार अम्बुज का ‘इच्छाएँ’ के बाद यह दूसरा कथा-संग्रह ‘मज़ाक़’ उनकी अप्रतिम गद्य शैली को कुछ और गहराई देता है अधिक व्यंजक बनाता है। जीवन की मूर्त-अमूर्त तकलीफ़ों को दृश्यमान करती ये कहानियाँ समाज में समानांतर रूप से हो रहे सांस्कृतिक नैतिक ह्रास को भी लक्षित करती हैं। ये गहरे जीवनानुभवों सूक्ष्म निरीक्षणों भाषा की विलक्षणता कहन और शिल्प के नये आविष्कार से मुमकिन हुई हैं। . अम्बुज अपने लेखन में संघर्षशील मनुष्य की वैचारिक और सामाजिक लड़ाई को रेखांकित करते रहे हैं। आज के क्रूर सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में पैरों तले की जिस ज़मीन को लगातार हमसे छीना जा रहा है उसे फिर से पा लेने की शाश्वत आकांक्षा अम्बुज की इन कहानियों का अनुपेक्षणीय स्वर है। ये कहानियाँ चारों तरफ़ से घिरे मनुष्य के संकटों उसकी रोज़मर्रा की दारुण सच्चाइयों को पठनीय रूपकों अनोखे मुहावरों में रखते हुए जिजीविषा के सर्वथा नये रूपों से हमारा परिचय कराती हैं। . आज संसार में निजी एकांत तलाशने धरना देने हेतु जगह माँगने या जीवन में खोया विश्वास जगाने संबंधों में प्रेमिल चाह या कोई सहज मानवीय इच्छा भी किस कदर दुष्कर प्रहसनमूलक और अव्यावहारिक हो चली है इस विडंबना को कहानी संग्रह ‘मज़ाक’ से सहज ही समझा जा सकता है।
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