यह आत्मकथा है शान्ति नोबेल पुरस्कार से सम्मानित परम पावन दलाई लामा की जिनकी प्रतिष्ठा सारे संसार में है और जिसे तिब्बतवासी भगवान के समान पूजते हैं। चीन द्वारा तिब्बत पर आधिपत्य स्थापित किये जाने के बाद 1959 में उन्हें तिब्बत से निष्कासित कर दिया और वे पिछले 51 वर्षों से भारत में निर्वासित के रूप में अपना जीवन जी रहे हैं। 1938 में जब वे केवल दो वर्ष के थे तब उन्हें दलाई लामा के रूप में पहचाना गया। उन्हें घर और माता-पिता से दूर ल्हासा के एक मठ में ले जाया गया जहाँ कठोर अनुशासन और अकेलेपन में उनकी परवरिश हुई। सात वर्ष की छोटी उम्र से उन्हें तिब्बत का सबसे बडा धार्मिक नेता घोषित किया गया और जब वे पन्द्रह वर्ष के थे उन्हें तिब्बत का सर्वोच्च राजनीतिक पद दिया गया। एक प्रखर चिंतक विचारक और आज के वैज्ञानिक युग में सत्य और न्याय का पक्ष लेने वाले धर्मगुरु की तरह दलाई लामा को देश-विदेश में सम्मान मिलता। यह आत्मकथा है देश निकाला पाने वाले एक निर्वासित शांतिमय योद्धा के संघर्ष की जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर उनके गंभीर चिंतन की झलक मिलती है और जीवन के लिए प्रेरणाप्रद विचार भी।
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