10 मई 1945 को झंग (अविभाजित भारत) में जन्मे प्रताप सहगल एकमूर्धन्य नाटककार अप्रतिम कवि कथाकार आलोचक और बाल साहित्यकार केरूप में जाने जाते हैं। उन्होंने जहाँ एक ओर बेहतरीन यात्रा-वृतांत लिखे हैं वहींडायरी के रूप में अपने लेखकीय एवं नाटक की दुनिया से जुड़े अनुभवों को भीदर्ज किया है। बच्चों के प्रति विशेष स्नेह के चलते ही उन्होंने बच्चों के लिएनाटक कहानियाँ और कविताओं की सर्जना की है। नाटक एवं साहित्य से जुड़ेउनके वैचारिक निबंध हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।हिन्दी रंगमंच के साथ एक दर्शक के रूप में उनका रिश्ता छठे दशक से शुरूहोता है और आज भी वे एक सक्रिय दर्शक बने हुए हैं। नाट्यालेखन तो उन्होंनेसातवें दशक की शुरुआत से ही कर दिया था लेकिन उनका मंचित होने वालापहला नाटक रंग-बसंती है। इसे छायानट ने 1981 में श्रीराम सेंटर में मंचितकिया और बाद में इसे साहित्य कला परिषद द्वारा सर्वश्रेष्ठ आलेख के रूप मेंसम्मानित किया गया। उन्होंने रंग बसंती के अतिरिक्त अब तक अन्वेषक मौतक्यों रात भर नहीं आती अँधेरे में नहीं कोई अंत यूँ बनी महाभारत रामानुजनतथा बुल्लेशाह जैसे मौलिक नाटक लिखे हैं तो बल्गारियाई नाटक का अनुवादकिस्सा तीन गुलाबों का के नाम से भी किया है। लगभग तीस लघु नाटक औरबीस बाल नाटक भी उनके नाट्य-सृजन का हिस्सा हैं। छू मंतर दस बालनाटक और दो बाल नाटक में आदि बाल-नाटकों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीहैं। चुनिंदा यात्रा वृत्तांत बहुत ही दिलचस्प तरीके से लिखे गए यात्रा-वृत्तांत हैं।अन्य यात्रा-वृत्तांतों से एकदम अलग। आप पढ़ना शुरू करेंगे तो बीच में छोड़नहीं सकेंगे।
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