साहित्य तो समाज का प्रतिबिंब मात्र है । लेखक बार-बार ऐसे प्रतिबिंबों की सृष्टि करता है और उसमें से झांकते हैं उसके आस-पास के चेहरे साथ ही अनेकों नये चेहरे जिनको पहचानने का प्रयास समाज करता है । वह साहित्य के माध्यम से अनेकों जिंदगियों को पढ़ता है । एक कोने में बैठकर समाज की सच्चाइयों को देखता है जीता है स्वयं उसका हिस्सा हो जाता है । अगर पाठक को वे चरित्र चलते-फिरते नजर आने लगते हैं उसके अपने जुड़े होने का एहसास होता है उसे लगता है यह उसकी कहानी है उसकी सखी की कहानी है उसकी बेटी की कहानी है तो लेखन सार्थक है । कहने को समाचार पत्र की एक कतरन होती है किसी की आँख में तैरते आँसू होते हैं किसी वृद्ध की लड़खड़ाती टांगें उन सब में न जाने कितनी कहानियाँ होती हैं ।
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