अधर्म हजार हो सकते हैं धर्म हजार नहीं हो सकते। अधर्म बीमारी है धर्म स्वास्थ्य है। इसलिए धर्म तो एक ही हो सकता है और जिस दिन मनुष्य-जाति पर सिर्फ धर्म का सास्वत सनातन होगा उस दिन ही हम धर्म के नाम पर हो रही नासमझियों से मुक्त हो सकेंगे।अब इस नये आदमी को इस इक्कीसवीं सदी के आदमी को नई नीति चाहिए। उस नीति के नये आधार चाहिए। यह नई नीति ज्ञान पर खड़ी होगी भय पर नहीं। यह नई नीति इस बात पर खड़ी होगी कि आज के आदमी को समझ में आना चाहिए कि नैतिक होना उसके लिए आनंदपूर्ण है नैतिक होना उसके लिए स्वास्थ्यपूर्ण है।नैतिक होना उसके निजी हित में है। यह किसी भविष्य के भय के लिए नहीं है। यह कल मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग के लिए नहीं आज इसी पृथ्वी पर नैतिक होने का रस। और जो अनैतिक है वह अपने हाथ से अपने पैर काट रहा है। जो अनैतिक है वह भविष्य में नरक जाएगा ऐसा नहीं है जो अनैतिक है वह आज अपने लिए नरक पैदा कर रहा है।एक आदमी जब पूरे तीव्र क्रोध में होता है तो जितना जहर उसके खून में फैलता है इसका सौ गुना जहर एक आदमी की हत्या के लिए काफी है। यह हमें ज्ञान का हिस्सा बनाना पड़ेगा। अब भविष्य की नैतिकता ज्ञान का हिस्सा होगी। हमें प्रेम को ज्ञान को अपना हिस्सा बनाना पड़ेगा।मंजिल के बिना अगर कोई रास्ता हो तो अर्थहीन ही होगा असंगत ही होगा। क्योंकि जो रास्ता किसी मंजिल पर न पहुंचाता हो उसको रास्ता कहना ही बहुत कठिन है। एक दिन रास्ते को मंजिल भी स्वीकार करनी पड़ती है। और कोई साधन साध्य के बिना अर्थपूर्ण नहीं हो पाता है।
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