एक पेशेवर अदीब न होने के बावज़ूद विनोद कुमार त्रिपाठी 'बशर' का ये काव्य संग्रह अपनी पहचान बना चुका है। उनकी शायरी उनके भीतर की बेचैनी है जो उनके व्यस्त और व्यावसायिक तौर पर सफल जीवन में रोज़ बूंद - बूंद इकठ्ठा होती रहती है और फिर जैसे ही वो अपने नज़दीक बैठते हैं ग़ज़लों और नज़्मों के रूप में फूट पड़ती है. उनकी शाइरी उनके व्यक्तित्व तक सीमित नहीं है। इसमें वो पूरा समाज और परिवेश शामिल है जो उनके साथ हमारे भी इर्द-गिर्द हमेशा रहता है और जिसकी अजीबोग़रीब फ़ितरत से हम सब वाक़िफ़ हैं। इस किताब में शामिल उनकी ग़ज़लें और नज़्में गवाह हैं कि मौजूदा दौर की ज़ेहनी और जिस्मानी दिक़्क़तों को उन्होंने बहुत नज़दीक और ईमानदारी से महसूस किया है। वो देख रहे कि ज़िन्दगी की ये तथाकथित मज़बूरियां हमें कहाँ लेकर जा रही हैं और ये कि अगर हम इन्हें रोक नहीं सकते तो इन पर निगाह तो रखना ही होगा।विनोद कुमार त्रिपाठी 'बशर' के नज़्मों में रुमानियत एक ऐसे मुक़ाम पर पहुँच जाती है जहाँ वो आध्यात्मिक लगने लगती है। उनके नज़्मों की संरचना कभी साहिर की याद दिलाती है तो कभी फैज़ की। प्रलेक प्रकाशन की इस प्रस्तुति के उर्दू संस्करण को महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी महाराष्ट्र सरकार और उर्दू अकादमी उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत भी किया जा चुका है। इंसानी तज्रुबात के हर पहलू को छूता हुआ बशर साहब का ये मजमुआ ए कलाम निश्चित ही पाठकों की संवेदनाओं को कुरेदेगा।
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