जब किसी बड़े लेखक के द्वारा लिखे गए सौ-पचास शब्द किसी किताब की भूमिका हो सकते हैं तो पुष्पा जी के साथ भारती जी के कमरे में बिताये सौ-पचास पल. इससे बढ़कर इस किताब की और क्या भूमिका होगी? प्रणम्य दृष्टि से भाव-विभोर हो सर झुकाये मानो उन्होंने भूमिका लिखी हो। मैं कह उठा- "अब इस संग्रह का शीर्षक 'बचा-खुचा मैं' नहीं होगा। मुझे कोई अच्छा शीर्षक नहीं सूझा तो मैं शीर्षक रमूंगा- 'ये बचा-खुचा मैं' नहीं है! इस पर वे मुस्कुरा उठीं। मुझे ऐसा लगा मानो उन्होंने भूमिका पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हो! शीर्षक रखना मेरे लिए रचना लिखने से ज्यादा मुश्किल होता है। फिर यहाँ तो कई विधाएँ हैं। एक दिन ख्याल आया कि कई बार कई सब्जियाँ कम मात्रा में होती हैं तो सफल गृहणी उन्हें मिलाकर सब्जी बना लेती है। इससे सब्जियाँ जाया भी नहीं होती और सबका अलग-अलग स मिलकर एक नया स बन जाता है। इसे कहते हैं "मिक्स वेजिटेबल'!.
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