Mohabbat { Dardo ki dava }
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: मोहब्बत:– दर्दों की दवा” एक खूबसूरत एहसास लिए जवां दिलों की ज़ुबां से ओत–प्रोत काव्य–संग्रह है। यह काव्य–संग्रह हमनवा से इश्क़ शिकायत और उसकी हया की ओर इशारा करता हुआ समंदर की गहराइयों में ले जाता है जहां वफ़ा भी है दर्द भी है और दवा भी है। आशिक़ इश्क़ में इतना डूब जाता है कि उसको आगे–पीछे कुछ नहीं दिखता सिवाय महबूब के लेकिन उसको धोखा भी मिलता है जिसको वो बर्दास्त नहीं कर पाता और शिकायतें दर्द उसकी रूह में उबलता है तथा दिल और आंखों से लहू बरसता है। ख़ुद क़फ़स बन जाता है मगर मरना भी नहीं चाहता बस ज़ीस्त में खुद को संभालने की कोशिश में लगा हुआ है। वह दाग़–ए–दिल आशिक़ सोचता है कि मोहब्बत कभी मरती नहीं है जहां सच्ची मोहब्बत होती है वहां देवताओं का पुनर्जन्म होता है। मोहब्बत अपने आप में मोहब्बत है इसमें क्या टूटा और क्या जुड़ा बस मोहब्बत ही जाने इंसान तो बस बेवजह ही मोहब्बत को जलील करते फिरता है वस्तुतः किसी भी समस्या के पनपने में इंसान ख़ुद जिम्मेदार होता है इसमें मोहब्बत का तो कोई दोष ही नहीं होता है “कितने ही ज़्वार उफनते है समंदर की लहरों में मैं तो कतरा–ए–बुदबुदा हूं बस यही सोचता हूं।” भाषा शैली इश्क़नुमा है हमनवा किस्म की है दर्द में मरहम और आंखों में आशावादी विचारों का बखूबी वर्णन करने में सक्षम है:- “कोई चरासाज़ चराग़ जगाने आया था इस दिल में वो लौ बुझाकर चला गया ना कर पाया मुलाकात।”
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