मोहन राकेश की ज़िंदगी एक खुली किताब रही है। उसने जो कुछ लिखा और किया- वह दुनिया को मालूम है। लेकिन उसने को कुछ जिया- यह सिर्फ उसे मालूम था। अपनी सांसों की कहानी उसने डायरियों में दर्ज की है। और कितना तकलीफ़देह है यह एहसास कि राकेश जैसा लेखक अपने अनुभवों की कहानियां दुनिया के लिए लिख जाए और अपने व्यक्तिगत संताप सुख और दुःख के क्षणों को जानने और पहचानने के लिए अपने दस्तावेज़ दोस्तों के पास छोड़ जाए... डायरियाँ लेखक का अपना और अपने हाथ से किया हुआ पोस्ट-मार्टम होती हैं।एक लेखक कैसे तिल-तिल जीता और मरता है-अपने समय को सार्थक बनाते हुए खुद को कितना निरर्थक पाता है और अपनी निरर्थकता में से कैसे वह अर्थ पैदा करता है - इसी रचनात्मक आत्म-संघर्ष को डायरियाँ उजागर करती हैं। राकेश की डायरी इसी आत्म-संघर्ष के सघन एकांतिक क्षणों का लेखा-जोखा है जो वह किसी के साथ बांट नहीं पाया....-इस पुस्तक में कमलेश्वर द्वारा लिखी भूमिका से
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