Monobhashiki ke Siddhant aur Hindi Sahitya
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प्रेमचन्द के बिना हिंदी ही नहीं बल्कि भारतीय कथा साहित्य पर कोई भी बातचीत असंभव है। वे उन थोड़े से भारतीय कथाकारों में एक हैं जिनकी रचना-परिधि हर कालखंड के पाठक को विस्मित करती है। आज का पाठक प्रेमचंद को पढ़ता है और इस बात पर चकित होता है कि इस भविष्यद्रष्टा सर्जक ने लगभग अस्सी वर्ष पहले उन समस्याओं पर डूबकर विचार किया था जिनकी वजह से समकालीन समाज अवनति की ओर जा रहा है। वह उनकी कहानियों की विषय वस्तु की विविधता पर भी चकित और मुग्ध होता है। प्रेमचंद को पढ़ते हुए वह एक ऐसे स्रष्टा से परिचित होता है जो अपनी पूर्णता में कालजीवी भी था और कालजयी भी है। यह अकारण नहीं है कि प्रेमचंद की रचनाओं में हर सच्चा भारतीय अपने हिस्से का प्रकाश ढूंढता और पाता है। शायद ही कोई ऐसा पाठक हो जो प्रेमचंद-साहित्य के पास से उदास लौटा हो। प्रेमचंद भारतीय समाज के गहरे जानकार थे। वे समस्याओं को सतही ढंग से समझने और अभिव्यक्त करने के विरुद्ध थे। यही कारण है कि उन्होंने भारतीय समाज को क्षति पहुंचाने वाली समस्याओं की गहरी पड़ताल की और अपने कथा-साहित्य में उसे आलोचनात्मक विवेक के साथ चित्रित किया। प्रेमचंद के लेखन से यह स्पष्ट है कि उनकी हर संभव कोशिश थी कि उनकी रचनाएं मनुष्यता की रक्षा और निर्वाह का साधन बनें। आज भी भारतीय समाज के समक्ष कई चुनौतियां हैं। आज भी कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे में प्रेमचंद का साहित्य मार्गदर्शक की तरह है। वह हमें हमारी गलतियों का बोध कराता है और उससे उबरने का विवेक भी देता है।
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