आज जिस दौर में हम रह रहे हैं आपसी सहयोग व भाई चारे के हिमायती ढेर सारे हिन्दी उर्दू के रचनाकार पाल्हे बदलते हुए सत्ता व व्यवस्था की चापलूसी में दिन रात एक करते नज़र आते हैं। सांप्रदायिक व चरमपंथियों के ख़िलाफ़ जो लोग व्यवस्थाओं से टकराने की बात कर रहे थे वही लोग उनकी झोली में दुबक कर कुछ प्राप्त कर लेने की होड़ में सहज दिखलाई पड़ जाएंगे। धर्म निरपेक्षता व आपसी इकजहती की परंपरा को लोग खूंटी पर टांग निश्चिंत हो गये हैं। यह एक शर्मनाक स्थिति है ऐसे में कवि और शायरों की एक अलग भूमिका होनी चाहिए। सबके दिलो-दिमाग़ में एक चरम पंथी व्यवस्था का चाबुक झनझनाहट पैदा कर रहा है। मुस्तहसन का शायर इन हालात के ख़िलाफ़ बोल उठता है- मुस्तहसन की ग़ज़लें उस धरती की फ़स्ल हैं जहां पेड़ों का एहतराम किया जाता है बादलों से कलाम किया जाता है और परिंदों की चहकारों को सलाम किया जाता है। क़ुदरत और इंसान की यह दोस्ती इनकी शायरी में उन मूल्यों की हिफ़ाज़त करती नज़र आती है जो ज़िन्दग़ी में ज़िन्दगी जीने का हौसला जगाती है इंसान और इंसान के बीच की दूरियां मिटाती है और वक़्त को तहज़ीब के आदाब सिखाती है । —हृदयेश मयंक
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