केशव तिवारी कविता के लिए दृश्य से गुज़रते नहीं उसमें प्रवेश करते हैं। वह विकल करने वाले दृश्य को पहले कविता से बाहर अपनी सामर्थ्य भर बदलने का यत्न करते हैं फिर कविता में लाने का। वह देखे हुए से देर तक विकल रहने वाले व्यक्ति-कवि हैं। यह विकलता इतनी प्रभावी है कि वह कविता में उसे व्यक्त करके भी उससे विमुख या मुक्त नहीं हो पाते हैं। उनके यहाँ चीज़ें अविराम उलटी-पलटी-उधेड़ी-खोली-समझी जा रही हैं और इस क्रमिकता में विकलता और-और गाढ़ी होती जा रही है। वह व्यक्ति-कवि-स्थिति से अभिन्न हो जाती है। कविता में उसे कह देना किसी व्यक्ति-मित्र से उसे कह देने जैसा ही है; लेकिन समस्या यह है कि कविता में उसे बार-बार नहीं कहा जा सकता इसलिए व्यक्तियों-मित्रों से उसे बार-बार कहा जाता है।
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