NADI KE DWEEP

About The Book

व्यक्ति अज्ञेय की चिंतन-धरा का महत्तपूर्ण अंग रहा है और ‘नदी के द्वीप’ उपन्यास में उन्होंने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरुपित करने की सफल कोशिश की है-वह व्यक्ति जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं भंवरों और तरंगो के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता बिगड़ता और फिर बनता रहता है ! वेदना जिसे मांजती है पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है और धीरे-धीरे द्रष्टा ! अज्ञेय के प्रसिद्द उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ से संरचना में बिलकुल अलग इस उपन्यास की व्यवस्था विकसनशील व्यक्तियों की नहीं आंतरिक रूप से विकसित व्यक्तियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है ! उपन्यास में सिर्फ उनके आत्म का उदघाटन होता है ! समाज के जिस अल्पसंख्यक हिस्से से इस उपन्यास के पत्रों का सम्बन्ध है वह अपनी संवेदना की गहराई के चलते आज भी समाज की मुख्यधारा में नहीं है ! लेकिन वह है और ‘नदी के द्वीप’ के चरों पत्र मानव-अनुभूति के सर्वकालिक-सार्वभौमिक आधारभूत तत्त्वों के प्रतिनिधि उस संवेदना-प्रवण वर्ग की इमानदार अभिव्यक्ति करते हैं ! ‘नदी के द्वीप’ में एक सामाजिक आदर्श भी है जिसे अज्ञेय ने अपने किसी वक्तव्य में रेखांकित भी किया था और वह है-दर्द से मंजकर व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास ऐसी स्वतंत्रता की उद्भावना जो दूसरे को भी स्वतंत्र करती हो ! व्यक्ति और समूह के बीच फैली तमाम विकृतियों से पीड़ित हमारे समाज में ऐसी कृतियाँ सदैव प्रासंगिक रहेंगी !
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