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About The Book
Description
Author
प्रभु जोशी हिन्दी गल्प जगत् के ऐसे अनूठे कथा-नागरिक हैं जो सूक्ष्मतम संवेदनाओं के रेशों से ही विचार और संवेदना के वैभव का वितान रचते हैं जिसमें रचना का स्थापत्य अपने परिसर में समय के भूगोल को चतुर्दिक घेर लेता है। यही वजह है कि उनकी लम्बी और औपन्यासिक आभ्यन्तर वाली लगभग सभी कथा-रचनाएँ वर्गीकृत सामाजिकता के अन्तर्विरोधों के दारुण दु:खों को अपने कथ्य का केन्द्रीय-सूत्र बनाकर चलती आई हैं।प्रस्तुत कथा-कृति ‘नान्या’ औपनिवेशिक समय के विकास-वंचित अंचल के छोटे से गाँव में एक अबोध बालक के ‘मनस के मर्मान्तक मानचित्र’ को अपना अभीष्ट बनाती हुई भाषा के नाकाफीपन में भी अभिव्यक्ति का ऐसा नैसर्गिक मुहावरा गढ़ती है कि भाषा के नागर-रूप में तमाम ‘तद्भव’ शब्द अपने अभिप्रायों को उसी अनूठेपन के साथ रखने के लिए राज़ी हो जाते हैं जो लोकभाषा की एक विशिष्ट भंगिमा रही है। कहने कि ज़रूरत नहीं कि हिन्दी गद्य में मालवांचल की भाषिक सम्पदा से पाठकों का परिचय करानेवाले प्रभु जोशी निर्विवाद रूप से पहले कथाकार रहे हैं जिनकी ग्राम-कथाओं के ज़रिये पाठकों ने सत्तर के दशक के पूर्वाद्र्ध में इस क्षेत्र के यथार्थ को उसकी समूची जटिलता के साथ जाना। जब कि इस अंचल से आनेवाले पूर्ववर्तियों से यह छूटता रहा था।अबोधता के इस अकाल समय में ‘नान्या’ की यह दारुण कथा जिस गल्पयुक्ति से चित्रित की गई है उसमें प्रभु जोशी का कुशल गद्यकार दृश्य-भाषा से रची गई कथा-अन्विति को पर्त-दर-पर्त इतनी घनीभूत बनाता है कि पूरी रचना में कथा-सौष्ठव और औत्सुक्य की तीव्रता कहीं क्षीण नहीं होती। कहना न होगा कि यह हिन्दी गल्प की पहली ऐसी कृति है जिसमें बाल-कथानायक के सोचने की भाषा के सम्भव मुहावरे में इतना बड़ा आभ्यन्तर रचा गया है। इसमें उसकी आशा-निराशा सुख-दु:ख संवेदना के परिपूर्ण विचलन के साथ बखान में उत्कीर्ण हैं जहाँ लोक-स्मृति का आश्रय पात्र की बाल-सुलभ अबोधता को और-और प्रामाणिक भी बनाता है। कहानी में यह वह समय है जब कि नगर और ग्राम का द्वैत इतना दारुण नहीं था और लोग ग्राम से पलायन में जड़-विहीन हो जाने का भय अनुभव करते थे। कथा में एक स्थल पर दादी की कथनोक्तिमें यह सामाजिक सत्य जड़ों से नाथे रखने के लिए तर्क पोषित रूप में व्यक्त भी होता है कि ‘जब कुण्डी में पाणी कोठी में नाज ग्वाड़ा में गाय और हाथ में हरकत-बरकत होय तो गाँव का कांकड़ छोड़ के हम सेरगाम क्यों जावाँ?’ बहरहाल नान्या अपनी दादी और बड़े ‘बा के बीच ही मानसिक गठन की प्रश्नाकुलता से भिड़ता हुआ यकीनों की विचित्र और उलझी हुई गाँठों में और-और उलझता हुआ हमें रुडयार्ड किपलिंग चेखव और दॉस्तोयेव्स्की के बाल पात्रों की त्रासदियों का पुनर्स्मरण कराता हुआ करुणा और संवेदना की सार्वभौमिकता के वृत्त के निकट ला छोड़ता है। प्रभु जोशी के कथाकार की दक्षता इस बात में भी है कि ‘नैरेटर’ की उपस्थिति कलात्मक ढंग से ‘कैमोफ्लेज्ड’ कर दी गई है। नान्या की यह कथा अपने भीतर के एकांत में घटनेवाले आत्मसंवाद का रूप ग्रहण करती हुई इतनी पारदर्शी हो जाती है कि पाठक एक अबोध की त्रासदी के पास निस्सहाय-सा व्यथा के वलय में खड़ा रह जाता है। कथा काल-कीलित होते हुए भी सार्वभौमिक सत्य की तरह हमारे समक्ष बहुत सारे मर्मभेदी प्रश्न छोड़ जाती है। विस्मय तो यह तथ्य भी पैदा करता है कि कथाकृति काल के इतने बड़े अंतराल को फलाँग कर साहित्य के समकाल से होड़ लेती हुई अपनी अद्वितीयता का साक्ष्य रखती है।