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About The Book
Description
Author
मानसिक अंतर्द्वंद जो सामान्यतः सैद्धांतिकता और व्यावहारिकता के मध्य होता है एकांत पाकर अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। अंतर्द्वंद के दोनों योद्धा अनेक वाद-प्रतिवादों को अपने हथकंडे बनाते तर्क और वितंडा के अंतर को विस्तृत करते अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए हमारे मानसिक प्रक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बना देते हैं। मेरी अंतरात्मा रह जाती है मात्र एक तटस्थ साक्षी बन कर...! बस यही उसकी भूमिका होती है जो उसे अनचाहे ही निभानी पड़ती है.......!