*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
₹233
₹250
7% OFF
Hardback
All inclusive*
Qty:
1
About The Book
Description
Author
यह उपन्यास श्रावक उमरावमल ढढ्ढा की जीवनी पर आधारित है। श्री ढढ्ढा का जीवन सीधा सादा और सरल था। रायबहादुर सेठ के पौत्र और एक बड़ी हवेली के मालिक होकर भी उन्होंने आमजन का जीवन जिया। पुरखों के द्वारा छोड़ी गई करोड़ों की सम्पत्ति को अपने भोग-विलास पर खर्च नहीं करके दान कर दी। उनके पुरखे अंग्रेजों के बैंकर थे। उनका व्यवसाय इन्दौर हैदराबाद तक फैला था। महारानी अहल्याबाई के राखीबंद भाई उनके पुरखे थे। उन्होंने पुरखों की सम्पत्ति को छुए बिना नौकरी करके अपना जीवन-यापन किया। श्री ढढ्ढा वस्तुत: एक अकिंचन अमीर थे। वे सचमुच ही निर्लेप नारायण थे। उमरावमल ढढ्ढा मानते थे कि मैं सबसे पहले इंसान हूँ बाद में हिन्दुस्तानी। उसके बाद जैन। जैन के बाद श्वेतांबर। स्थानकवासी परंपरा का श्रावक। वे सम्यक् अर्थों में महावीर मार्ग के अनुगामी और अनुरागी थे। वे हमेशा अपनी बात अनेकांत की भाषा में कहते थे। अनेकांत को समझाने का उनका फार्मूला बड़ा सीधा था। वे कहते थे कि ही और भी में ही अनेकांत का सिद्धांत छिपा है। मेरा मत ही सच्चा है यह एकांतवाद है जबकि अनेकांत कहता है कि मेरा मत भी सच्चा है और आपका मत भी सच्चा हो सकता है। उन्होंने पुरखों के छोड़े करोड़ों रुपयों के धन को छुआ ही नहीं। वकालत वृत्तिका और व्यवसाय—इन सब में उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। वकालत इसलिए छोड़ दी कि झूठ की रोटी वे नहीं खा सकते थे। वृत्तिका भी गिरते स्वास्थ्य की वजह से लंबी नहीं चली। व्यवसाय में घाटे पर घाटे लगे। जो कुछ पास में बचा वह दान-पुण्य में लुटा दिया। उन्होंने अमीरी को छोड़ गरीबी को अपनाया। जब भी कोई ढढ्ढा हवेली की भव्यता को देखता तो उसकी आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह जातीं कि इतनी बड़ी हवेली का स्वामी एक सीधी-सादी जिंदगी जी रहा है।