Off the Camera


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About The Book

रिपोर्टिंग में लंबा वक़्त बिताने के बाद मैं मानता हूं कि टीवी रिपोर्टर पर्दे पर जो दिखाता है वो कई दफ़ा इससे भी आगे जाता है। वो मौक़े पर सबसे पहले पहुंच कर आख़िर तक वहां रहता है। वहां घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना को वो गहरार्इ से देखता-परख़ता है। उसके पास घटना से जुड़ी इतनी जानकारी होती है जो वो टीवी के तेज़ माध्यम में अक्सर नहीं बता पाता। मगर हर घटना एक रोचक क़िस्सा है। उसकी किस्सागोई अच्छा रिपोर्टर ही कर सकता है चाहे उसे टीवी पर सुना दे अख़बार में लिख दे और ना हो तो एक यादगार किताब पाठकों के हाथ में दे दे। इस नई पुस्तक में रिपोर्टिंग के भागादौड़ी के क़िस्से तो हैं ही साथ ही किसी घटना को देखने का रिपोर्टर का नजरिया भी नया है। इसमें कोरोना की मार्मिक कथाएं हैं तो मध्यप्रदेश में 2020 में हुए सत्ता परिवर्तन की उठापटक उनके उपचुनाव और फिर बीजेपी की वापसी के किस्से हैं। साथ में ही कुछ श्रद्धांजलियां भी हैं अपनों को। काग़ज़ का हो या टीवी के परदे का रिपोर्टर तब सबसे आसान काम करता है जब वह वह लिखता या दिखाता है कि जो है नहीं; और सबसे मुश्किल काम तब कर रहा होता है जब वह वह लिखता या दिखाता है जिसे सब दबाने या छिपाने में लगे होते हैं। यह किताब उस दुनिया का सच बताती है हम जिसे छोड़ते और भूलते जा रहे हैं। इस किताब में जो कहानियां हैं वे सब उनकी टीवी रिपोर्ट का हिस्सा नहीं बन सकीं क्योंकि एक माध्यम के रूप में टीवी की अपनी सीमाएं हैं। मगर ब्रजेश ने ये कहानियां बचाए रखीं और अब इस किताब में इन्हें पढ़ते हुए एक तरह का सुकून भी होता है और एक तरह की बेचैनी भी।
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