*COD & Shipping Charges may apply on certain items.
Review final details at checkout.
₹351
₹495
29% OFF
Hardback
All inclusive*
Qty:
1
About The Book
Description
Author
जाति-भेद आज भी हमारे समाज की एक गहरी खाई है जिसमें बतौर समाज और राष्ट्र हमारे देश की जाने कितनी संभावनाएँ गर्क होती रही हैं। आजादी के बाद भी बावजूद इसके कि संविधान की निगाह में हर नागरिक बराबर है भेदभाव के जाने कितने रूप हमें शासित करते हैं। कई बार लगता है कि बिना ऊँच-नीच के बिना किसी को छोटा या बड़ा देखे हुए हम अपने आप को चीन्ह ही नहीं पाते। और भी दुखद यह है कि शिक्षा भी अपने तमाम नैतिक आग्रहों के बावजूद हमारे भीतर से इन ग्रंथियों को नहीं निकाल पाती। इस पुस्तक को पढ़ते हुए आप अनेक ऐसे प्रसंगों से गुजरेंगे जहाँ उच्च शिक्षा-संस्थानों में जाति-भेद की जड़ों की गहराई देखकर हैरान रह जाना पड़ता है। इस आत्मकथा के लेखक को अपनी प्रतिभा और क्षमता के रहते हुए भी स्कूल स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक बार-बार अपनी जाति के कारण या तो अपने प्राप्य से वंचित होना पड़ा या वंचित करने का प्रयास किया गया। लेखक का मानना है कि व्यक्ति की प्रतिभा और उसका ज्ञान उसके मन और मस्तिष्क के व्यापक क्षितिज खोलने के साधन हैं लेकिन आज वे अधिकतर अनैतिक ही नहीं संकीर्ण और निर्मम बनाने के जघन्य साधन बन गए हैं। वे कहते हैं कि भारतीय समाज की यही विसंगति उसकी सम्पूर्ण अर्जित ज्ञान-परम्परा को मानवीय व्यवहार में चरितार्थ न होने के कारण मानवता का उपहास बना देती है और आदर्श से उद्भासित उसकी सारी उक्तियाँ उसका मुँह चिढ़ाने लगती हैं। यह आत्मकथा हमें एक बार फिर इन विसंगतियों को विस्तार से देखने और समझने का अवसर देती है। मेरा जन्म 28 पफरवरी 1945 को उत्तर बिहार की इन दिनों राजधानी कहलाने वाले कभी वेफ कस्बाई नगर मुजफ्रपफरपुर वेफ संभ्रान्त मुहल्ले नयाटोला वेफ एक ग्वाले परिवार में हुआ था। मेरे परिवार की जीविका का साधन गोपालन द्वारा दूध की बिक्री वेफ अलावा पिता की जिला परिषद् में दफ्रतरी की मामूली नौकरी थी। मेरा मुहल्ला पढ़े-लिखे अधिवक्ता डाक्टर और प्रोपेफसर का था जो सवर्णों से ही आते थे इसलिए भी उसे संभ्रान्त माना जाता था। बाकी लोग पिछड़े वर्ग दलित मेहतर और मुस्लिम वर्गों से आते थे। उन संभ्रान्त परिवारों की नजर में हम छोटे लोग थे। मेरे पिताजी को जिन्हें उन्होंने अपनी गोद में खेलाया और प्यार भी किया था वे भी बाबूजी से उम्र में छोटे होने पर भी उन्हें रामचन्दर ही कहते थे उनवेफ नाम वेफ साथ आदरसूचक ‘जी’ शब्द नहीं जोड़ते थे। मेरी माँ को ‘रउतनिया’ कहकर पुकारा जाता था। लेकिन हाई स्वूफल में पढ़ते समय मुझे यह अनुभव हुआ कि जाति-विभाजित और आर्थिक वैषम्य पर आधारित भारतीय समाज में सवर्ण और शूद्र को समृद्धि ही निकट लाती है कारण चाहे जो भी हो। -इसी पुस्तक से|