एक थी रानी पद्मिनी जिसे लोक-मन की कल्पनाओं ने गढ़ा और इतिहास में स्थापित कर दिया। राजपूताना के सम्मान और शान के रूप में लोग उसकी कथा कहते-सुनते रहे। एक थी ‘पद्मावत’ जिसे मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी में लिखा और जिसमें उन्होंने स्त्री प्रकृति और प्रेम के सौन्दर्य की एक अमर छवि गढ़ी। छात्र उसके अंशों को पाठ्यक्रम में पढ़ते और कोर्स में लगी हर सामग्री की तरह रट-रट कर भूल जाते। फिर एक फ़िल्म बनी जिससे पता चला कि लोग न पद्मिनी को जानते हैं न ‘पद्मावत’ को; कि वे एक मिथक को सच की तरह पढ़ रहे हैं और जो चीज़ वास्तव में पढ़ने योग्य है उसे पढ़ ही नहीं रहे। इसलिए यह किताब। नवोन्मेषकारी विचार और सृजनात्मक आलोचकीय मेधा के धनी प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी इस किताब में 'पद्मावत' को भारत के आरम्भिक आधुनिक काल की रचना कहते हैं जिसके केन्द्र में एक स्त्री है एक ऐसा काव्य जिसमें चरित्रों का मूल्यांकन उनके व्यक्तिगत कार्यों और गुणों के अनुसार होता है उनकी धार्मिक जातिगत या सामाजिक पहचान से नहीं। यह एक प्रेम कविता है। श्रेष्ठ कविता जो स्त्रीत्व का जश्न मनाती है और शृंगार रस जिसका महत्त्वपूर्ण अंग है। ‘पद्मावत’ और उसकी इस मीमांसा से हम जान पाते हैं कि जायसी की संवेदना में इस्लामी परम्परा के ज्ञान और सूफ़ी आस्था के साथ-साथ हिन्दू पुराण कथाओं मान्यताओं और अवध के लोकजीवन की गहरी जानकारी और लगाव एक साथ अनुस्यूत है। पुरुषोत्तम जी खुद इस किताब को ‘जायसी की कविता के नशे में बरसों से डूबे एक पाठक द्वारा’ अपनी एक प्रिय रचना का पाठ कहते हैं जो स्पष्ट है सिर्फ़ आलोचना नहीं है भारत की अपनी उपनिवेश-पूर्व आधुनिकता की सौन्दर्य-चेतना और काव्यबोध से सम्पन्न एक क्लासिक कृति का रचनात्मक अवगाहन है।
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