मेरे लिए जितना शुद्ध हिन्दी के महाकवियों को समझना मुश्किल था उतना ही खालिस उर्दु के शायरों को भी। लेकिन भावनाएँ तो मेरे अन्दर भी उबाल मार रही थी। उन्हें बाहर निकालना भी जरूरी था। फिर मैंने इन दोनों के बीच एक छोटी सी पगडंडी से होते हुए एक अलग सफर की शुरुआत की। रोज़ाना की बोलचाल की भाषा में अपने कुछ भाव निकाल कर रखे। इन्हें आप कविताएं कह लीजिए ग़ज़ल कह लीजिए मर्जी आपकी। मेरे लिए ये बस मेरे भावनाओं का आपके साथ साझा करने का जरिया है। बिलकुल आम भाषा में। जिसके लिए कभी आपको किसी शब्दकोश की जरूरत महसूस नहीं होगी।
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