भीमा कहने को बेशक जाहिल था परन्तु उसकी बातों में खरी सच्चाई थी- हम चाहे जितना भी आत्मिक खुश हो लें लेकिन हम एक असभ्य समाज के पहरेदार हैं। ‘दुनियाँ में होने वाली हर क्रांति की सिर्फ एक ही वजह होती है-असंतोष। और यहाँ के दबे-कूचे तबके में तो यह हजारों वर्षों से बलव रहा है फिर भी इस निमित्त क्रांति जैसा कुछ भी देखने को नहीं मिला क्योंकि उस असंतोष का अपने उद्गार से पहले ही कोई न कोई झुनझुना थमा दिया जाता है और आरक्षण इनके लिए थमाया गया अब तक का सबसे बड़ा तुष्टिपरक झुनझुना है। बजाते रहो- जब तक जा है फिर कुछ और देंगे। वर्ण-व्यवस्था ने अछूतों को जन्म जरूर दिया है लेकिन आने वाले सालों-साल हमारी घृणित यथास्थिति को बरकरार रखने की अगर कोई वजह रह जाएगी तो वह आरक्षण ही होगी। हम आज बेशक यह महसूस न कर पा रहे हों लेकिन यह एक डरावना सच है। आज हम सिर्फ इस आरक्षण का दामन न थामे रहते तो शायद हमारा सम्पूर्ण तबका प्रतिष्ठा और गरिमा की दुनियाँ में बराबरी का न केवल हकदार होता बल्कि उसे भोगता भी। यह कभी हमें वह जिंदगी मुकम्मल नहीं करा सकता जिसके अरमान संजोते-संजोते हमारी न जाने कितनी ही पुश्तें गुजर गईं। क्या उनके ख्वाबों में इरादा महज नौकरी-चाकरियों में हिस्सेदारी पाने का रहा! नहीं वे इससे बढ़कर चाहते थे---।’ -इसी पुस्तक से यह मर्मस्पर्शी दलित-ब्राह्मण गाथा समाज को जोंक की भाँति नोच रहीं कुरूप जड़ व्यवस्थाओं पर करारे प्रहार करती है।.
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