PARAMPARA KI PAHCHAN

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''परंपरा की पहचान'' अवधेश प्रधान के विस्तृत लेखन और चिंतन का प्रतिनिधि चयन है। यह चयन तीन खंडों में विभाजित है- भारतीय नवजागरण का विस्तार जातीय साहित्य का प्रवाह और परंपरा का संधाना धर्म और धर्मनिरपेक्षता की बहस को अवधेश प्रधान ने धर्म के अंध विरोध की जगह धर्मांधता के विरोध में बदना। धर्म को जनता की अफीम मानने वाली दृष्टि की एकांगिकता उन्होंने समझी और धर्म तथा धर्मांधता के अंतर की पहचान की। धर्म और धर्मांधता दोनों को एक ही लाठी से हाँकने से बहुत गलतियां हुई है। अवधेश प्रधान के इस विवेक ने जीवन और साहित्य को देखने-समझने का उदार दृष्टिकोण दिया। यही उदार दृष्टि उन्हें रामकृष्ण विवेकानंद और रवींद्रनाथ की ओर ले गई। इसके मूल में भारतीय परंपरा की नही समझ रही है जिसमें एकता के साथ विविधता का समन्वय है। फरवेद से लेकर विवेकानंद तक मौजूद नानाल'' और ''बहुधापन'' का संधान करते हुए अवधेश प्रधान दरअसल भारतीय परंपरा के मूल स्वर की पहचान कर रहे हैं। उनके लिए भारत महज एक मंशा नहीं विचार है जो इसी नाना और बहुधापन से जगमग और जीवंत है। इस जीवंतता की पहचान करने के लिए अवधेश प्रधान भक्ति काव्य की ओर लौटते हैं और ''पद्मावत'' की सांस्कृतिक भूमिः पर विचार करते हुए उसके केंद्र में अवध के लोक जीवन की शिनाख्त करते हैं और उसे हिंदी के जातीय प्रदेश और जातीय संस्कृति के अंग के रूप में देखते हैं जहां हिंदी और मुसलमान एक ही वृक्ष की दो डाते हैं। जनपद और जनपदीयता के हवाले से अवधेश प्रधान लोक को पकड़े रहते हैं। उनके लिए लोक गीत और लोक कथाएं केवल लोक जीवन को समझने की कुजी ही नहीं बल्कि भारत के विचार को निर्मित करने वाले ताना और बाना की तरह है।..... प्रो. सदानंद शाही(हिंदी विभाग अध्यक्षवि.एच.यु.)
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